नव-चैतन्य के महावट - रवींद्रनाथ
- शिवदयाल
बचपन में ही जिन विभूतियों की छवि ने मन के अंदर अपना स्थाई निवास बना लिया, उनमें प्रमुख है गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर! उनके बड़े-बड़े लहरदार बाल, धवल दाढ़ी, तीखे नैन-नक्श, प्रशस्त ललाट और बड़ी-बड़ी गहरी चिंतनशील आंखें! यों भारत के किसी भी बच्चे का सीधा रिश्ता गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर से उसी समय बन जाता है जबकि वह स्कूल में राष्ट्रगान गाने लगता है और उसे बताया जाता है कि हमारे राष्ट्रगान के रचयिता कौन हैं। बच्चों के लिए काम करनेवाले, उनके लिए लिखनेवाले, उन्हें शिक्षित करनेवाले अन्य लेखक भी दुनिया में हुए, लेकिन इतनी कम वय में बच्चों का इतना सघन और उतना ही आत्मीय रिश्ता शायद ही किसी अन्य व्यक्ति या रचनाकार से बना हो जितना कि भारतीय बच्चों का गुरुदेव रवींद्रनाथ से।
तमाम वैचारिक झंझावात आते रहने के बावजूद अंतर्मन में जो एक छवि अप्रतिहत रही आज तक, वह छवि कविगुरु रवींद्रनाथ की है। उन पर बात करने के लिए हमें उनके समय में जाना होगा, जिसे नवजागरण या पुनर्जागरण काल कहा जाता है। " नवजागरण एक बहुपक्षीय, बहुमुखी, बहुस्तरीय, बहुविषयी और बहुस्पर्शी परिघटना है जिसकी विविध व अनेक अभिव्यक्तियां हैं। रवींद्रनाथ भारतीय पुनर्जागरण के सबसे बड़े प्रतीक पुरुष इसलिए बन जाते हैं कि उनके बहुमुखी प्रतिभासंपन्न व्यक्तित्व में यह सभी अभिव्यक्तियां अपने सुंदरतम रूप में एक साथ झलक उठती हैं, मानो पुनर्जागरण को रवींद्रनाथ में एक ठौर ही नहीं मिलता, बल्कि उत्कर्ष प्राप्त हो जाता है।"
सौ साल पहले की दुनिया क्या थी? दुनिया के आधे से अधिक देश पराधीन थे, पश्चिमी देशों, विशेषकर ब्रिटेन के उपनिवेश थे। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1919) में जरूर साम्राज्यों का पतन हुआ, अनेक देशों, अधिकतर यूरोपीय देशों में लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त हुआ, लेकिन उपनिवेशों की स्थिति में कोई अंतर नहीं आया। भारत तो सन् 1858 में ही सीधे ब्रिटिश सत्ता के अधीन आ गया था। जो अंग्रेज 17वीं शताब्दी की शुरुआत में ही व्यापार के लिए आ गए थे, वे अगले डेढ़ सौ सालों में इतनी पैठ बना चुके थे कि 1757 के प्लासी युद्ध, जिसमें कि वास्तव में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला अंग्रेजों से नहीं गद्दारों से लड़कर हार गया था, जीतने के बाद भारत के शासक और नियंता ही बन बैठे। इसी के बाद औपनिवेशिक शोषण और दमन की वास्तविक शुरुआत हुई। औपनिवेशिक शासन में केवल आर्थिक शोषण और राजनीतिक स्वत्व-हरण नहीं होता बल्कि इसके भी ऊपर सांस्कृतिक दमन होता है। सांस्कृतिक दमन की प्रक्रिया बहुत गहन और स्थाई प्रभाव छोड़ने वाली होती है जिसमें विजित समुदाय, यहां ब्रिटिश उपनिवेशक, पराजित मूल निवासियों अथवा प्रजा को यह विश्वास दिलाने की, मनवाने की हरचंद कोशिश करता रहता है कि वह वास्तव में मूल प्रजा से सांस्कृतिक रूप से भी श्रेष्ठ है। उसकी जाति (रक्त) श्रेष्ठ है, भाषा श्रेष्ठ है, आस्था और पूजा पद्धति श्रेष्ठ है। पहनावा-पोशाक, खान-पान, रहन-सहन, रुचियां, परंपराएं और प्रथाएं तथा जीवन शैली - हर दृष्टि से पराजितों से श्रेष्ठ है, और उन पर शासन करने के योग्य है और उनकी अधीनता स्वीकार करने में ही पराजितों के जीवन की सार्थकता है, उत्कर्ष है। एक जीवित समाज जिसमें चैतन्य अभी बचा हुआ हो, वह इस दलन को स्वीकार नहीं कर पाता। भारत को सांस्कृतिक रूप से पराधीन बनाने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने अट्ठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में ही अंग्रेजी शिक्षा को लागू किया। बंगाल विजय के बाद वे उत्तर भारत में लगातार एक पर एक क्षेत्रों को, सूबों को अपने अधीन करते जा रहे थे। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त वफादार पढ़ा-लिखा बुद्धिजीवी, और वफादार बिचौलिया जमींदार वर्ग - भारत में उपनिवेशवाद को जमाने में यह दो सबसे मजबूत स्तंभ रहे जिनकी नींव अट्ठारहवीं सदी के अंत तक डाल दी गई थी और आजादी के अमृत काल तक भी यह उखड़ी तो क्या, ठीक से हिल भी नहीं सकी है। विऔपनिवेशिकीकरण की जब बात होती है तो उसका सबसे मजबूत और प्रासंगिक संदर्भ यहां है। हमें यह मानने में आज हिचक नहीं होनी चाहिए कि हमारा स्वातंत्र्योत्तर शासन-प्रशासन और राजव्यवस्था उपनिवेशवादी शासकीय ढांचे का ही विस्तार है। वह उपनिवेशवादी मूल्यबोध और तौर-तरीकों से ही चलता है, बस अंग्रेज अनुपस्थित हैं या कि उनकी प्रगट नहीं प्रच्छन्न उपस्थिति है। हमारे बहुलतावादी विविधतापूर्ण समाज में विभाजन के नए-नए आधार ब्रिटिश परिपाटी वाले संसदीय लोकतंत्र में हमारा राजनीतिक वर्ग तलाशता ही रहता है। इसे भी व्यापक समाज नहीं, समुदाय नहीं, खंडित समाज के कुछ खंडों, हिस्सों या जनसमूह के मतदाता चाहिएं।
स्वाधीन बुद्धि और चेतना का आह्वान करने वाले और सत्य के मार्ग पर अकेले ही चल पड़ने की पुकार लगाने वाले विश्वकवि रवींद्रनाथ को आज इसी पृष्ठभूमि में याद करना सार्थक होगा।
वास्तव में उपनिवेशवाद और विदेशी शासन से लड़ने के लिए केवल राजनीतिक मोर्चा पर्याप्त नहीं था। सांस्कृतिक स्तर पर इसका ठोस प्रतिकार आवश्यक और अपरिहार्य था। यह संयोग मात्र नहीं कि उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में एक सशक्त सांस्कृतिक नेतृत्व उभरा - उत्तर से लेकर दक्षिण तक, और हमारे अंदर भारत का जितना भी बोध बचा हुआ है उसका श्रेय इसी को है - चाहे वह साहित्य और कला हो, शिक्षा हो, या आस्था या धर्म हो। जिस परिघटना को नवजागरण कहा गया और राजा राममोहन राय जिसके अग्रदूत माने गए, वह वास्तव में सांस्कृतिक दमन की देसी बौद्धिक प्रतिक्रिया थी। यह एक दोहरी प्रक्रिया थी, इसके दो पक्ष थे - एक आत्मान्वेषण और आत्म परिष्कार का था, और दूसरा औपनिवेशिक शासन के मार्फत आए पश्चिम के ज्ञानोदय से उद्भुत आधुनिक ज्ञान-विज्ञान विज्ञान और दूसरे साधनों के सार्थक उपयोग का था। यह देखने की बात है कि यदि ईसाई मिशनरियां और उनके सरपरस्त कंपनी अधिकारी यह दंभ भर रहे थे कि समस्त हिंदू धर्मग्रंथ मिलकर इंग्लैंड की एक अच्छी लाइब्रेरी के एक अलमारी के रेक में रखी पुस्तकों की भी बराबरी करने लायक नहीं थे, उसी समय वेदों-उपनिषदों में 'एक ब्रह्म' की सत्ता को प्रमाणित करने की कोशिशें हो रही थीं। हमारे धर्मग्रंथों के निकष पर ही अनर्थक लोकाचार और प्रथाओं को समाप्त करने का आह्वान किया जा रहा था। यहां तक की मूर्ति पूजा को भी अवैदिक मानकर वेदों की ओर लौट चलने का आह्वान किया जा रहा था। अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार हो रहा था तो संस्कृत और मातृभाषा के महत्व पर भी जोर दिया जा रहा था। बाद में तो बहुदेववाद और मूर्ति पूजा को औचित्य प्रदान किया गया, यह काम परमहंस रामकृष्ण और विवेकानंद ने किया। पश्चिमीकरण की तेज बयार के बीच भी भारत के प्राचीन गौरव और विश्व को भारत की देन पर सशक्त ढंग से सप्रमाण बातें की गईं।
इसी वातावरण में रवीन्द्रनाथ की स्वातंत्र्य चेतना विकसित हुई। उनके अत्यंत धनाढ्य पितामह द्वारकानाथ ठाकुर राममोहन राय के समकालीन और सहयोगी थे। पिता देवेंद्रनाथ ब्रह्म समाज के उद्देश्य और उसकी गतिविधियों को विस्तार देने वाले महापुरुष थे। केवल 11 -12 वर्ष की उम्र में रवीन्द्रनाथ पिता के साथ हिमालय गए थे। इस यात्रा का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा पड़ा। कई अर्थों में वह विद्रोही थे और प्रचलित के विकल्प के संधान में लगे रहते। उन्हें स्कूल में औपचारिक शिक्षा नहीं दिलाई जा सकी। वह ईश्वर विश्वासी थे लेकिन युक्तियुक्तता के अंत-अंत तक पक्षधर रहे। आस्था और युक्तियुक्तता अथवा rationality - इन दोनों को उन्होंने जीवन में साधा। वह असाधारण प्रतिभा के धनी थे। प्रतिभा भी बहुमुखी। एक ही साथ वे दार्शनिक रवींद्रनाथ, शिक्षक रवींद्रनाथ , कवि रवींद्रनाथ थे। वे साहित्यकार तो थे ही, चित्रकार, गायक और संगीत के गहरे जानकार भी थे( जीवन के अंतिम वर्षों में वे चित्रकारी की ओर आकर्षित हुए और केवल दो वर्षों के अंदर कोई दो हजार चित्र बनाए)। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि नवजागरण अथवा नव-चैतन्य के मूल्य यदि किसी एक व्यक्ति में परिभाषित और मूर्तिमान हुए थे, तो वह रवींद्रनाथ ही थे, उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा और उदात्त चिंतन, देश-कातर, जन-विह्वल मन और, अपार, अगाध संवेदना इसके सर्वथा उपयुक्त थी। पराधीन मानस में उन्होंने भयमुक्त मन एवं और गर्वोन्नत माथे का भाव शिल्प गढ़ा। पराधीन देश में वे विश्वकवि हुए, विश्व भारती की उन्होंने स्थापना की और विश्व प्रकृति के साथ एकाकार होना उनके जीवन का ध्येय रहा। उन्होंने ब्रिटिश भारत में अंग्रेजी के वर्चस्व के युग में बांग्ला की महिमा बढ़ाई। विश्वबोध और अध्यात्म भाव से आप्यायित रचनाओं की बदौलत साहित्य का नोबेल प्राप्त किया। एक जिम्मेदार विश्व नागरिक के रूप में उन्होंने विश्व शांति और बंधुत्व का पाठ अंतरराष्ट्रीय समुदाय को पढ़ाया। इसके लिए उन्होंने चीन, जापान यूरोप और अमेरिका की यात्राएं कीं और राष्ट्रवादी भावनाओं के उफान के बीच निर्भय होकर राष्ट्रवाद के खतरों के प्रति सचेत किया। उन्होंने ग्यारह बार विदेश यात्राएं की। मनुष्य का संपूर्ण विकास उनके समग्र चिंतन और कार्य के कर्म के केंद्र में रहा। उनके लिए मनुष्य होने का भाव अन्य सारे भावों के ऊपर था। वे मनुष्य की स्वतंत्रता के रास्ते की हर बाधा और वर्जना को मानो हटा देना चाहते थे। शिक्षक और शिक्षा शास्त्री रवींद्रनाथ इसीलिए बच्चे को एक वर्जनाहीन वातावरण में मुकुलित होते देखना चाहते थे। वे संकीर्णता से कितनी दूर और औदात्य के लिए कैसे अभीप्सित थे, इसे उनकी प्रसिद्ध रचना 'बंग माता' में देखा जा सकता है। वह कहते हैं - 'हे स्नेहार्त बंगभूमि, अपने बच्चों को पाप-पुण्य में, सुख-दुख में, उत्थान-पतन में बड़े होने दो, अपने घर रूपी गोद में चिरकाल के लिए बच्चा बनाकर मत रखो। देश-देशांतर में जिसका जहां स्थान हो, उसे ढूंढने दो। पग-पग पर क्षुद्र निबंधों के फंदों से उसे बांधकर भला मानुस बनाकर मत रखो। जी-जान से दुख सहन करके अपने आप अच्छे बुरे के साथ संग्राम करने दो, तुम अपने स्वयं अपने क्षीण, शांत, गुणी बच्चों को पकड़े रखकर ग्रहहीन, भाग्यहीन बना रही हो। हे मोहग्रस्त जननी, अपने सात कोटि बालकों को तू ने केवल बंगाली बना कर रखा है, उन्हें मनुष्य नहीं बनाया।"
उन की प्रसिद्ध कविता 'एकला चलो रे' ने कितनी ही पीढ़ियों को अनुप्राणित किया है। सोच कर आश्चर्य होता है कि जिस समय स्वतंत्रता के लिए साथ चलने की समवेत पुकारें उठ रही थीं, प्रयाण गीत गाए जा रहे थे, उस समय कविगुरु ने अकेले ही चलने की यह पुकार लगाई थी -
'यदि तुम्हारी पुकार पर
कोई नहीं आता
अकेले ही चले चलो..'
जिस पथ पर कविगुरु चलने को कह रहे हैं - किसी भी कीमत पर चलने को कह रहे हैं, 'चाहे कोई न बोले, सभी मुख मोड़ लें, सभी लौट चलें, जब कोई दीया भी न जले और बदली-आंधी में द्वार सब बंद हों, तू अपनी बात मुक्त कंठ से बोल, पथ के कांटों से लहूलुहान चरण तल लिए, वज्र शिखा से अपने ही हृदय-पंजर को जलाकर प्रकाश किए चला चल, अकेला ही चला चल..' - वह स्वतंत्रता का, मुक्ति का ही पथ नहीं है? अकेले ही चले चलने का यह आवाहन पराधीन मानस को जगाने का, उसे स्वातंत्र्य चेतना बनाने का आवाहन है!
उपनिवेशवाद से संघर्ष करते हमारे पूर्वज केवल प्रतिक्रिया और प्रतिशोध तक सीमित नहीं रह कर कैसे सार्वभौम मूल्यों के प्रति समर्पित रहे, सोचकर विस्मय तो होता ही है, गर्व से मस्तक ऊंचा हो जाता है। सार्वभौमवाद के तीन प्रतिमान हमारे यहां हुए - रवींद्रनाथ, विवेकानंद और मोहनदास गांधी। संयोग देखिए कि यह तीनों विभूतियां उन्नीसवीं शताब्दी के सातवें दशक में जन्मीं - रवींद्रनाथ 1861 में, विवेकानंद 1863 में, और गांधीजी 1869 में। यह तथ्य भी कम विस्मित नहीं करता कि ये तीनों विभूतियां तीन क्षेत्रों से थीं - रवींद्रनाथ साहित्य, शिक्षा एवं कला से; विवेकानंद धर्म से, और गांधीजी राजनीति से। तीनों महापुरुषों में एक बात समान थी - सार्वभौम चिंतन और अंतरराष्ट्रीयतावाद! इन्होंने अपने-अपने तरीके से अपने-अपने क्षेत्र में विश्व पटल पर भारत को मान-प्रतिष्ठा दिलाई और दुनिया भर के लोगों ने भी उन्हें अपना ही माना। इन तीनों में एक और बात समान थी - भारतीय सभ्यता और जीवन मूल्यों में अगाध श्रद्धा! तीनों महामानव भारत के खोए हुए स्वत्व को पुनः उपलब्ध कराना चाहते थे और इसी एक लक्ष्य के लिए उनके सारे प्रयास, सारे उद्यम और पुरुषार्थ समर्पित थे।
महात्मा गांधी ने कविगुरु को ऋषि कहा था। केवल काव्यकर्म और साहित्य सृजन से उनके अंदर का ऋषित्व संतुष्टि नहीं पाता था। भारतीय जन को घोर दैन्य से मुक्ति कैसे मिले, अशिक्षा और अंधविश्वास का घटाटोप कैसे छंटे, भारतीय ग्रामीण जीवन कैसे पुनर्संघटित हो, कैसे उसका खोया गौरव वापस मिले - इस पर वे केवल चिंतन नहीं करते थे, बल्कि इसके लिए जमीन पर उतर कर काम भी करते थे। 1901 में उन्होंने शांति निकेतन नामक विद्या केंद्र खोला जो कि प्राचीन गुरुकुल परंपरा का एक सामुदायिक विद्यालय था। वास्तव में बोलपुर में उनके पिता ने इसी नाम से एक आश्रम 1863 में ही स्थापित किया था जो आगे चलकर इस रूप में उनके पुत्र के काम आया। यह संस्था अंग्रेजों की विद्यालय व्यवस्था से बिल्कुल अलग, उसके समानांतर काम कर रही थी। यहां शुरुआत में साधनों का बहुत अभाव था। जैसा कि देवी प्रसाद ने इसके बारे में लिखा है - 'गरीबी वह प्राथमिक पाठशाला है जिसमें सारी मानव जाति अपना पहला पाठ और सबसे अच्छा अभ्यास पाती है।' रवींद्रनाथ ने प्रचलित स्कूल को बच्चों के लिए विद्यागार नहीं कारागार माना था। आगे चलकर अनेक क्षेत्रों में अनेक विभूतियां इसी शांतिनिकेतन से निकलकर आईं। शांतिनिकेतन के बारे में कितना कुछ लिखा गया है। शिवानी ने एक बड़ी सुंदर पुस्तक लिखी है - 'आमादेर शांतिनिकेतन'।
शिक्षा के अलावा ग्रामीण जीवन को रूपांतरित करने के उद्देश्य से 1919 में उन्होंने 'श्री निकेतन' की स्थापना की, शांति निकेतन से कुछ ही दूरी पर। यहां किसानों, दस्तकारों को खेतीबाड़ी और कारीगरी और दस्तकारी की शिक्षा दी जाती थी। 1905 में अपनी प्रसिद्ध पुस्तिका 'स्वदेशी समाज' में वह इसकी कल्पना कर चुके थे। हां, यह उल्लेखनीय है कि शांति निकेतन की स्थापना के लिए उन्हें पुरी का अपना मकान बेचना पड़ा। उनकी पत्नी मृणालिनी देवी ने उन्हें इसके लिए अपने गहने दे दिए। 1913 में मिले नोबेल पुरस्कार की कुल राशि एक लाख बीस हजार भी उन्होंने शांतिनिकेतन में ही लगा दिए। एक ग्राम सहकारी बैंक खोला गया सस्ते ऋण देने के लिए जिससे कि किसानों की आर्थिक कठिनाई दूर हो। इतना कुछ होने के बाद भी 1930 के दशक के अंत से ही शांतिनिकेतन चलाना आर्थिक रूप से अवहनीय हो चला था। उन्होंने गांधीजी को सहयोग के लिए एक मार्मिक चिट्ठी लिखी थी। प्रत्युत्तर में स्वयं गांधी जी ने शांति निकेतन के लिए चंदा इकट्ठा किया था। गुरुदेव ने शांतिनिकेतन में विश्व भारती विश्वविद्यालय की स्थापना भी की, इस उद्देश्य से कि संसार के सभी देशों के छात्र-शिक्षक वहां एकत्र हों। विश्व भारती का आदर्श वाक्य गुरुदेव के विचारों के अनुरूप ही है - यत्र विश्वम्भवत्येक नीड़म्, अर्थात, जहां सारा संसार ही एक घोंसला बन जाए। अपनी विदेश यात्राओं के दौरान उन्हें अनुभव हुआ था कि विभिन्न देशों की जनता के बीच मैत्री भाव और सद्भावना से ही संसार का कल्याण हो सकता है। यह विडंबना ही है कि विश्व भारती भले ही एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है लेकिन वह प्रचलित विश्वविद्यालयी ढांचे के अंतर्गत आता है, उसमें गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की स्वतंत्र शिक्षा केंद्र की कल्पना का समावेश शायद ही है।
व ज्ञान के वातावरण में एक साथ रहते रहे थे, जहां सरल नियमों और शांतिपूर्ण प्रशासन के अंतर्गत ग्राम स्वशासन चलता रहा था, ही उसकी सच्ची पहचान थे। उसे अपने यहां के साम्राज्यों की चिंता नहीं थी।" 'स्वदेशी समाज' में उन्होंने आलंकारिक भाषा में इस विषय में लिखा है - " राजा-राजा की लड़ाइयों का कोई अंत नहीं लेकिन हमारा मर्मध्वनि वाला वेणुकुंज कायम रहा, आम और कटहल की वनछाया में। हमारे देवालय बनते रहे, अतिथिशालाएं स्थापित होती रहीं, पुष्करनियां बनती रहीं, गुरु महाशय गणित पाठ कराते रहे, संस्कृत पाठशाला में शास्त्र का अध्ययन बंद नहीं हुआ, चंडी-मंडप में रामायण का पाठ चलता रहा, और कीर्तनों से गांवों का प्रांगण मुखरित होता रहा। समाज के बाहर से कोई अपेक्षा नहीं रखी और बाहर के उपद्रवों से उसकी श्री भ्रष्ट नहीं हुई.." यह केवल संयोग नहीं कि शिक्षा के संदर्भ में गांधीजी ने उपनिवेशकाल-पूर्व के ग्रामीण भारत में एक सुंदर वृक्ष - 'ब्यूटीफुल ट्री' की कल्पना की थी जिसकी, उन्हीं के शब्दों में उपनिवेशवादियों ने जड़ों को भी नष्ट कर उसे सुखा दिया और भारत का साधारण जन अशिक्षा और निरक्षरता के अंधकार में डूब गया। स्वतंत्रता स्वतंत्रता पश्चात लेखक-विचारक धरमपाल ने अपने शोध से प्रमाणित कर दिया कि ब्रिटिश-पूर्व भारत के गांव आत्मनिर्भर और संपन्न थे, शिक्षा समुदाय का विषय था और शिक्षा सबको सुलभ थी - सभी जातियों के बच्चों को।
इसके अतिरिक्त अपने स्वप्न चिंतन और सरोकारों से बच्चों को जोड़ना, उनके बीच रहना, उनमें रमना, उनको पढ़ाना, उनके लिए रचना करना रवींद्रनाथ को अलग से विलक्षणता प्रदान करता है। उनका बाल साहित्य भी विश्व साहित्य की धरोहर है। उनकी 'तोते की कहानी' दिशाहीन, खोखली प्रचलित शिक्षा व्यवस्था की अमानवीयता को उजागर करती, बच्चे के पक्ष में लिखी गई अप्रतिम रचना है। यह बच्चों के लिए लिखी गई किंतु बड़ों को संबोधित और उनकी आंख खोलने वाली कहानी है। विदेश यात्राओं में वे स्वस्थ-प्रसन्न बच्चों को देख खूब प्रफुल्लित होते थे, लेकिन अगले ही क्षण सींक-से हाथ-पांव और घड़े जैसे उदर वाले गरीब भारतीय बच्चे याद आते थे और उनका ह्रदय क्रंदन कर उठता था। यह कितनी ग्लानि और लज्जा की बात है कि आज भी भारत में ऐसे बच्चे हैं।
गुरुदेव को आज याद करना अपने अंदर के बंधनों को खोलने और अपने चित्त को खुला आकाश देने जैसा उपक्रम है। आज हम जैसी स्थिति में हैं, जैसा भारत आज है, उसमें सबसे बड़ा काम समुदाय को फिर से खड़ा करने का, जागृत करने का है। आज राजनीतिक भारत के ऊपर सांस्कृतिक भारत को खड़ा करने, उसे तरजीह देने का समय आ गया है। राजनीति तोड़ती है, संस्कृति जोड़ती है। राजनीति को भी आज अपनी भूमिका पर विचार करने की जरूरत है। गुरुदेव रवींद्रनाथ ने कभी राजनीति के समाजीकरण की बात कही थी - आज इससे पहले शायद ही इस बात की ऐसी तीव्र और आकस्मिक आवश्यकता अनुभव की गई हो।
नव-चैतन्य के महावट को श्रद्धापूरित नमन!
(नवनीत, मई 2024 अंक में प्रकाशित.)
-शिवदयाल
ईमेल : sheodayallekhan@gmail.com