Tuesday 7 May 2024

 नव-चैतन्य के महावट - रवींद्रनाथ

                                - शिवदयाल 


















चपन में ही जिन विभूतियों की छवि ने मन के अंदर अपना स्थाई निवास बना लिया, उनमें प्रमुख है गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर! उनके बड़े-बड़े लहरदार बाल, धवल दाढ़ी, तीखे नैन-नक्श, प्रशस्त ललाट और बड़ी-बड़ी गहरी चिंतनशील आंखें! यों भारत के किसी भी बच्चे का सीधा रिश्ता गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर से उसी समय बन जाता है जबकि वह स्कूल में राष्ट्रगान गाने लगता है और उसे बताया जाता है कि हमारे राष्ट्रगान के रचयिता कौन हैं। बच्चों के लिए काम करनेवाले, उनके लिए लिखनेवाले, उन्हें शिक्षित करनेवाले अन्य लेखक भी दुनिया में हुए, लेकिन इतनी कम वय में बच्चों का इतना सघन और उतना ही आत्मीय रिश्ता शायद ही किसी अन्य व्यक्ति या रचनाकार से बना हो जितना कि भारतीय बच्चों का गुरुदेव रवींद्रनाथ से। 

तमाम वैचारिक झंझावात आते रहने के बावजूद अंतर्मन में जो एक छवि अप्रतिहत रही आज तक, वह छवि कविगुरु रवींद्रनाथ की है। उन पर बात करने के लिए हमें उनके समय में जाना होगा, जिसे नवजागरण या पुनर्जागरण काल कहा जाता है। " नवजागरण एक बहुपक्षीय, बहुमुखी, बहुस्तरीय, बहुविषयी और बहुस्पर्शी परिघटना है जिसकी विविध व अनेक अभिव्यक्तियां हैं। रवींद्रनाथ भारतीय पुनर्जागरण के सबसे बड़े प्रतीक पुरुष इसलिए बन जाते हैं कि उनके बहुमुखी प्रतिभासंपन्न व्यक्तित्व में यह सभी अभिव्यक्तियां अपने सुंदरतम रूप में एक साथ झलक उठती हैं, मानो पुनर्जागरण को रवींद्रनाथ में एक ठौर ही नहीं मिलता, बल्कि उत्कर्ष प्राप्त हो जाता है।"


सौ साल पहले की दुनिया क्या थी? दुनिया के आधे से अधिक देश पराधीन थे, पश्चिमी देशों, विशेषकर ब्रिटेन के उपनिवेश थे। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1919) में जरूर साम्राज्यों का पतन हुआ, अनेक देशों, अधिकतर यूरोपीय देशों में लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त हुआ, लेकिन उपनिवेशों की स्थिति में कोई अंतर नहीं आया। भारत तो सन् 1858 में ही सीधे ब्रिटिश सत्ता के अधीन आ गया था। जो अंग्रेज 17वीं शताब्दी की शुरुआत में ही व्यापार के लिए आ गए थे, वे अगले डेढ़ सौ सालों में इतनी पैठ बना चुके थे कि 1757 के प्लासी युद्ध, जिसमें कि वास्तव में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला अंग्रेजों से नहीं गद्दारों से लड़कर हार गया था, जीतने के बाद भारत के शासक और नियंता ही बन बैठे। इसी के बाद औपनिवेशिक शोषण और दमन की वास्तविक शुरुआत हुई। औपनिवेशिक शासन में केवल आर्थिक शोषण और राजनीतिक स्वत्व-हरण नहीं होता बल्कि इसके भी ऊपर सांस्कृतिक दमन होता है। सांस्कृतिक दमन की प्रक्रिया बहुत गहन और स्थाई प्रभाव छोड़ने वाली होती है जिसमें विजित समुदाय, यहां ब्रिटिश उपनिवेशक, पराजित मूल निवासियों अथवा प्रजा को यह विश्वास दिलाने की, मनवाने की हरचंद कोशिश करता रहता है कि वह वास्तव में मूल प्रजा से सांस्कृतिक रूप से भी श्रेष्ठ है। उसकी जाति (रक्त) श्रेष्ठ है, भाषा श्रेष्ठ है, आस्था और पूजा पद्धति श्रेष्ठ है। पहनावा-पोशाक, खान-पान, रहन-सहन, रुचियां, परंपराएं और प्रथाएं तथा जीवन शैली - हर दृष्टि से पराजितों से श्रेष्ठ है, और उन पर शासन करने के योग्य है और उनकी अधीनता स्वीकार करने में ही पराजितों के जीवन की सार्थकता है, उत्कर्ष है। एक जीवित समाज जिसमें चैतन्य अभी बचा हुआ हो, वह इस दलन को स्वीकार नहीं कर पाता। भारत को सांस्कृतिक रूप से पराधीन बनाने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने अट्ठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में ही अंग्रेजी शिक्षा को लागू किया। बंगाल विजय के बाद वे उत्तर भारत में लगातार एक पर एक क्षेत्रों को, सूबों को अपने अधीन करते जा रहे थे। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त वफादार पढ़ा-लिखा बुद्धिजीवी, और वफादार बिचौलिया जमींदार वर्ग - भारत में उपनिवेशवाद को जमाने में यह दो सबसे मजबूत स्तंभ रहे जिनकी नींव अट्ठारहवीं सदी के अंत तक डाल दी गई थी और आजादी के अमृत काल तक भी यह उखड़ी तो क्या, ठीक से हिल भी नहीं सकी है। विऔपनिवेशिकीकरण की जब बात होती है तो उसका सबसे मजबूत और प्रासंगिक संदर्भ यहां है। हमें यह मानने में आज हिचक नहीं होनी चाहिए कि हमारा स्वातंत्र्योत्तर शासन-प्रशासन और राजव्यवस्था उपनिवेशवादी शासकीय ढांचे का ही विस्तार है। वह उपनिवेशवादी मूल्यबोध और तौर-तरीकों से ही चलता है, बस अंग्रेज अनुपस्थित हैं या कि उनकी प्रगट नहीं प्रच्छन्न उपस्थिति है। हमारे बहुलतावादी विविधतापूर्ण समाज में विभाजन के नए-नए आधार ब्रिटिश परिपाटी वाले संसदीय लोकतंत्र में हमारा राजनीतिक वर्ग तलाशता ही रहता है। इसे भी व्यापक समाज नहीं, समुदाय नहीं, खंडित समाज के कुछ खंडों, हिस्सों या जनसमूह के मतदाता चाहिएं।

स्वाधीन बुद्धि और चेतना का आह्वान करने वाले और सत्य के मार्ग पर अकेले ही चल पड़ने की पुकार लगाने वाले विश्वकवि रवींद्रनाथ को आज इसी पृष्ठभूमि में याद करना सार्थक होगा।


वास्तव में उपनिवेशवाद और विदेशी शासन से लड़ने के लिए केवल राजनीतिक मोर्चा पर्याप्त नहीं था। सांस्कृतिक स्तर पर इसका ठोस प्रतिकार आवश्यक और अपरिहार्य था। यह संयोग मात्र नहीं कि उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में एक सशक्त सांस्कृतिक नेतृत्व उभरा - उत्तर से लेकर दक्षिण तक, और हमारे अंदर भारत का जितना भी बोध बचा हुआ है उसका श्रेय इसी को है - चाहे वह साहित्य और कला हो, शिक्षा हो, या आस्था या धर्म हो। जिस परिघटना को नवजागरण कहा गया और राजा राममोहन राय जिसके अग्रदूत माने गए, वह वास्तव में सांस्कृतिक दमन की देसी बौद्धिक प्रतिक्रिया थी। यह एक दोहरी प्रक्रिया थी, इसके दो पक्ष थे - एक आत्मान्वेषण और आत्म परिष्कार का था, और दूसरा औपनिवेशिक शासन के मार्फत आए पश्चिम के ज्ञानोदय से उद्भुत आधुनिक ज्ञान-विज्ञान विज्ञान और दूसरे साधनों के सार्थक उपयोग का था। यह देखने की बात है कि यदि ईसाई मिशनरियां और उनके सरपरस्त कंपनी अधिकारी यह दंभ भर रहे थे कि समस्त हिंदू धर्मग्रंथ मिलकर इंग्लैंड की एक अच्छी लाइब्रेरी के एक अलमारी के रेक में रखी पुस्तकों की भी बराबरी करने लायक नहीं थे, उसी समय वेदों-उपनिषदों में 'एक ब्रह्म' की सत्ता को प्रमाणित करने की कोशिशें हो रही थीं। हमारे धर्मग्रंथों के निकष पर ही अनर्थक लोकाचार और प्रथाओं को समाप्त करने का आह्वान किया जा रहा था। यहां तक की मूर्ति पूजा को भी अवैदिक मानकर वेदों की ओर लौट चलने का आह्वान किया जा रहा था। अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार हो रहा था तो संस्कृत और मातृभाषा के महत्व पर भी जोर दिया जा रहा था। बाद में तो बहुदेववाद और मूर्ति पूजा को औचित्य प्रदान किया गया, यह काम परमहंस रामकृष्ण और विवेकानंद ने किया। पश्चिमीकरण की तेज बयार के बीच भी भारत के प्राचीन गौरव और विश्व को भारत की देन पर सशक्त ढंग से सप्रमाण बातें की गईं।


इसी वातावरण में रवीन्द्रनाथ की स्वातंत्र्य चेतना विकसित हुई। उनके अत्यंत धनाढ्य पितामह द्वारकानाथ ठाकुर राममोहन राय के समकालीन और सहयोगी थे। पिता देवेंद्रनाथ ब्रह्म समाज के उद्देश्य और उसकी गतिविधियों को विस्तार देने वाले महापुरुष थे। केवल 11 -12 वर्ष की उम्र में रवीन्द्रनाथ पिता के साथ हिमालय गए थे। इस यात्रा का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा पड़ा। कई अर्थों में वह विद्रोही थे और प्रचलित के विकल्प के संधान में लगे रहते। उन्हें स्कूल में औपचारिक शिक्षा नहीं दिलाई जा सकी। वह ईश्वर विश्वासी थे लेकिन युक्तियुक्तता के अंत-अंत तक पक्षधर रहे। आस्था और युक्तियुक्तता अथवा rationality - इन दोनों को उन्होंने जीवन में साधा। वह असाधारण प्रतिभा के धनी थे। प्रतिभा भी बहुमुखी। एक ही साथ वे दार्शनिक रवींद्रनाथ, शिक्षक रवींद्रनाथ , कवि रवींद्रनाथ थे। वे साहित्यकार तो थे ही, चित्रकार, गायक और संगीत के गहरे जानकार भी थे( जीवन के अंतिम वर्षों में वे चित्रकारी की ओर आकर्षित हुए और  केवल दो वर्षों के अंदर कोई दो हजार चित्र बनाए)।  इसीलिए यह कहा जा सकता है कि नवजागरण अथवा नव-चैतन्य के मूल्य यदि किसी एक व्यक्ति में परिभाषित और मूर्तिमान हुए थे, तो वह रवींद्रनाथ ही थे, उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा और उदात्त चिंतन, देश-कातर, जन-विह्वल मन और, अपार, अगाध संवेदना इसके सर्वथा उपयुक्त थी। पराधीन मानस में उन्होंने भयमुक्त मन एवं और गर्वोन्नत माथे का भाव शिल्प गढ़ा। पराधीन देश में वे विश्वकवि हुए, विश्व भारती की उन्होंने स्थापना की और विश्व प्रकृति के साथ एकाकार होना उनके जीवन का ध्येय रहा। उन्होंने ब्रिटिश भारत में अंग्रेजी के वर्चस्व के युग में बांग्ला की महिमा बढ़ाई। विश्वबोध और अध्यात्म भाव से आप्यायित रचनाओं की बदौलत साहित्य का नोबेल प्राप्त किया। एक जिम्मेदार विश्व नागरिक के रूप में उन्होंने विश्व शांति और बंधुत्व का पाठ अंतरराष्ट्रीय समुदाय को पढ़ाया। इसके लिए उन्होंने चीन, जापान यूरोप और अमेरिका की यात्राएं कीं और राष्ट्रवादी भावनाओं के उफान के बीच निर्भय होकर राष्ट्रवाद के खतरों के प्रति सचेत किया। उन्होंने ग्यारह बार विदेश यात्राएं की। मनुष्य का संपूर्ण विकास उनके समग्र चिंतन और कार्य के कर्म के केंद्र में रहा। उनके लिए मनुष्य होने का भाव अन्य सारे भावों के ऊपर था। वे मनुष्य की स्वतंत्रता के रास्ते की हर बाधा और वर्जना को मानो हटा देना चाहते थे। शिक्षक और शिक्षा शास्त्री रवींद्रनाथ इसीलिए बच्चे को एक वर्जनाहीन वातावरण में मुकुलित होते देखना चाहते थे। वे संकीर्णता से कितनी दूर और औदात्य के लिए कैसे अभीप्सित थे, इसे उनकी प्रसिद्ध रचना 'बंग माता' में देखा जा सकता है। वह कहते हैं - 'हे स्नेहार्त बंगभूमि, अपने बच्चों को पाप-पुण्य में, सुख-दुख में, उत्थान-पतन में बड़े होने दो, अपने घर रूपी गोद में चिरकाल के लिए बच्चा बनाकर मत रखो। देश-देशांतर में जिसका जहां स्थान हो, उसे ढूंढने दो। पग-पग पर क्षुद्र निबंधों के फंदों से उसे बांधकर भला मानुस बनाकर मत रखो। जी-जान से दुख सहन करके अपने आप अच्छे बुरे के साथ संग्राम करने दो, तुम अपने स्वयं अपने क्षीण, शांत, गुणी बच्चों को पकड़े रखकर ग्रहहीन, भाग्यहीन बना रही हो। हे मोहग्रस्त जननी, अपने सात कोटि बालकों को तू ने केवल बंगाली बना कर रखा है, उन्हें मनुष्य नहीं बनाया।"

उन की प्रसिद्ध कविता 'एकला चलो रे' ने कितनी ही पीढ़ियों को अनुप्राणित किया है। सोच कर आश्चर्य होता है कि जिस समय स्वतंत्रता के लिए साथ चलने की समवेत पुकारें उठ रही थीं, प्रयाण गीत गाए जा रहे थे, उस समय कविगुरु ने अकेले ही चलने की यह पुकार लगाई थी - 

'यदि तुम्हारी पुकार पर 

कोई नहीं आता 

अकेले ही चले चलो..'

जिस पथ पर कविगुरु चलने को कह रहे हैं - किसी भी कीमत पर चलने को कह रहे हैं, 'चाहे कोई न बोले, सभी मुख मोड़ लें, सभी लौट चलें, जब कोई दीया भी न जले और बदली-आंधी में द्वार सब बंद हों, तू अपनी बात मुक्त कंठ से बोल, पथ के कांटों से लहूलुहान चरण तल लिए, वज्र शिखा से अपने ही हृदय-पंजर को जलाकर प्रकाश किए चला चल, अकेला ही चला चल..' - वह स्वतंत्रता का, मुक्ति का ही पथ नहीं है? अकेले ही चले चलने का यह आवाहन पराधीन मानस को जगाने का, उसे स्वातंत्र्य चेतना बनाने का आवाहन है!

उपनिवेशवाद से संघर्ष करते हमारे पूर्वज केवल प्रतिक्रिया और प्रतिशोध तक सीमित नहीं रह कर कैसे सार्वभौम मूल्यों के प्रति समर्पित रहे, सोचकर विस्मय तो होता ही है, गर्व से मस्तक ऊंचा हो जाता है। सार्वभौमवाद के तीन प्रतिमान हमारे यहां हुए - रवींद्रनाथ, विवेकानंद और मोहनदास गांधी। संयोग देखिए कि यह तीनों विभूतियां उन्नीसवीं शताब्दी के सातवें दशक में जन्मीं - रवींद्रनाथ 1861 में, विवेकानंद 1863 में, और गांधीजी 1869 में। यह तथ्य भी कम विस्मित नहीं करता कि ये तीनों विभूतियां तीन क्षेत्रों से थीं  - रवींद्रनाथ साहित्य, शिक्षा एवं कला से; विवेकानंद धर्म से, और गांधीजी राजनीति से। तीनों महापुरुषों में एक बात समान थी - सार्वभौम चिंतन और अंतरराष्ट्रीयतावाद! इन्होंने अपने-अपने तरीके से अपने-अपने क्षेत्र में विश्व पटल पर भारत को मान-प्रतिष्ठा दिलाई और दुनिया भर के लोगों ने भी उन्हें अपना ही माना। इन तीनों में एक और बात समान थी - भारतीय सभ्यता और जीवन मूल्यों में अगाध श्रद्धा! तीनों महामानव भारत के खोए हुए स्वत्व को पुनः उपलब्ध कराना चाहते थे और इसी एक लक्ष्य के लिए उनके सारे प्रयास, सारे उद्यम और पुरुषार्थ समर्पित थे।

महात्मा गांधी ने कविगुरु को ऋषि कहा था। केवल काव्यकर्म और साहित्य सृजन से उनके अंदर का ऋषित्व संतुष्टि नहीं पाता था। भारतीय जन को घोर दैन्य से मुक्ति कैसे मिले, अशिक्षा और अंधविश्वास का घटाटोप कैसे छंटे, भारतीय ग्रामीण जीवन कैसे पुनर्संघटित हो, कैसे उसका खोया गौरव वापस मिले - इस पर वे केवल चिंतन नहीं करते थे, बल्कि इसके लिए जमीन पर उतर कर काम भी करते थे। 1901 में उन्होंने शांति निकेतन नामक विद्या केंद्र खोला जो कि प्राचीन गुरुकुल परंपरा का एक सामुदायिक विद्यालय था। वास्तव में बोलपुर में उनके पिता ने इसी नाम से एक आश्रम 1863 में ही स्थापित किया था जो आगे चलकर इस रूप में उनके पुत्र के काम आया। यह संस्था अंग्रेजों की विद्यालय व्यवस्था से बिल्कुल अलग, उसके समानांतर काम कर रही थी। यहां शुरुआत में साधनों का बहुत अभाव था। जैसा कि देवी प्रसाद ने इसके बारे में लिखा है - 'गरीबी वह प्राथमिक पाठशाला है जिसमें सारी मानव जाति अपना पहला पाठ और सबसे अच्छा अभ्यास पाती है।' रवींद्रनाथ ने प्रचलित स्कूल को बच्चों के लिए विद्यागार नहीं कारागार माना था। आगे चलकर अनेक क्षेत्रों में अनेक विभूतियां इसी शांतिनिकेतन से निकलकर आईं। शांतिनिकेतन के बारे में कितना कुछ लिखा गया है। शिवानी ने एक बड़ी सुंदर पुस्तक लिखी है - 'आमादेर शांतिनिकेतन'।

शिक्षा के अलावा ग्रामीण जीवन को रूपांतरित करने के उद्देश्य से 1919 में उन्होंने 'श्री निकेतन' की स्थापना की, शांति निकेतन से कुछ ही दूरी पर। यहां किसानों, दस्तकारों को खेतीबाड़ी और कारीगरी और दस्तकारी की शिक्षा दी जाती थी। 1905 में अपनी प्रसिद्ध पुस्तिका 'स्वदेशी समाज' में वह इसकी कल्पना कर चुके थे। हां, यह उल्लेखनीय है कि शांति निकेतन की स्थापना के लिए उन्हें पुरी का अपना मकान बेचना पड़ा। उनकी पत्नी मृणालिनी देवी ने उन्हें इसके लिए अपने गहने दे दिए। 1913 में मिले नोबेल पुरस्कार की कुल राशि एक लाख बीस हजार भी उन्होंने शांतिनिकेतन में ही लगा दिए। एक ग्राम सहकारी बैंक खोला गया सस्ते ऋण देने के लिए जिससे कि किसानों की आर्थिक कठिनाई दूर हो। इतना कुछ होने के बाद भी 1930 के दशक के अंत से ही शांतिनिकेतन चलाना आर्थिक रूप से अवहनीय हो चला था। उन्होंने गांधीजी को सहयोग के लिए एक मार्मिक चिट्ठी लिखी थी। प्रत्युत्तर में स्वयं गांधी जी ने शांति निकेतन के लिए चंदा इकट्ठा किया था। गुरुदेव ने शांतिनिकेतन में विश्व भारती विश्वविद्यालय की स्थापना भी की, इस उद्देश्य से कि संसार के सभी देशों के छात्र-शिक्षक वहां एकत्र हों। विश्व भारती का आदर्श वाक्य गुरुदेव के विचारों के अनुरूप ही है - यत्र विश्वम्भवत्येक नीड़म्, अर्थात, जहां सारा संसार ही एक घोंसला बन जाए। अपनी विदेश यात्राओं के दौरान उन्हें अनुभव हुआ था कि विभिन्न देशों की जनता के बीच मैत्री भाव और सद्भावना से ही संसार का कल्याण हो सकता है। यह विडंबना ही है कि विश्व भारती भले ही एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है लेकिन वह प्रचलित विश्वविद्यालयी ढांचे के अंतर्गत आता है, उसमें गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की स्वतंत्र शिक्षा केंद्र की कल्पना का समावेश शायद ही है।


व ज्ञान के वातावरण में एक साथ रहते रहे थे, जहां सरल नियमों और शांतिपूर्ण प्रशासन के अंतर्गत ग्राम स्वशासन  चलता रहा था, ही उसकी सच्ची पहचान थे। उसे अपने यहां के साम्राज्यों की चिंता नहीं थी।" 'स्वदेशी समाज' में उन्होंने आलंकारिक भाषा में इस विषय में लिखा है - " राजा-राजा की लड़ाइयों का कोई अंत नहीं लेकिन हमारा मर्मध्वनि वाला वेणुकुंज कायम रहा, आम और कटहल की  वनछाया में। हमारे देवालय बनते रहे, अतिथिशालाएं स्थापित होती रहीं, पुष्करनियां बनती रहीं, गुरु महाशय गणित पाठ कराते रहे, संस्कृत पाठशाला में शास्त्र का अध्ययन बंद नहीं हुआ, चंडी-मंडप में रामायण का पाठ चलता रहा, और कीर्तनों से गांवों का प्रांगण मुखरित होता रहा। समाज के बाहर से कोई अपेक्षा नहीं रखी और बाहर के उपद्रवों से उसकी श्री भ्रष्ट नहीं हुई.." यह केवल संयोग नहीं कि शिक्षा के संदर्भ में गांधीजी ने उपनिवेशकाल-पूर्व के ग्रामीण भारत में एक सुंदर वृक्ष - 'ब्यूटीफुल ट्री' की कल्पना की थी जिसकी, उन्हीं के शब्दों में उपनिवेशवादियों ने जड़ों को भी नष्ट कर उसे सुखा दिया और भारत का साधारण जन अशिक्षा और निरक्षरता के अंधकार में डूब गया। स्वतंत्रता स्वतंत्रता पश्चात लेखक-विचारक धरमपाल ने अपने शोध से प्रमाणित कर दिया कि ब्रिटिश-पूर्व भारत के गांव आत्मनिर्भर और संपन्न थे, शिक्षा समुदाय का विषय था और शिक्षा सबको सुलभ थी - सभी जातियों के बच्चों को।

इसके अतिरिक्त अपने स्वप्न चिंतन और सरोकारों से बच्चों को जोड़ना, उनके बीच रहना, उनमें रमना, उनको पढ़ाना, उनके लिए रचना करना रवींद्रनाथ को अलग से विलक्षणता प्रदान करता है। उनका बाल साहित्य भी विश्व साहित्य की धरोहर है। उनकी 'तोते की कहानी' दिशाहीन,  खोखली प्रचलित शिक्षा व्यवस्था की अमानवीयता को उजागर करती, बच्चे के पक्ष में लिखी गई अप्रतिम रचना है। यह बच्चों के लिए लिखी गई किंतु बड़ों को संबोधित और उनकी आंख खोलने वाली कहानी है। विदेश यात्राओं में वे स्वस्थ-प्रसन्न बच्चों को देख खूब प्रफुल्लित होते थे, लेकिन अगले ही क्षण सींक-से हाथ-पांव और घड़े जैसे उदर वाले गरीब भारतीय बच्चे याद आते थे और उनका ह्रदय क्रंदन कर उठता था। यह कितनी ग्लानि और लज्जा की बात है कि आज भी भारत में ऐसे बच्चे हैं।


गुरुदेव को आज याद करना अपने अंदर के बंधनों को खोलने और अपने चित्त को खुला आकाश देने जैसा उपक्रम है। आज हम जैसी स्थिति में हैं, जैसा भारत आज है, उसमें सबसे बड़ा काम समुदाय को फिर से खड़ा करने का, जागृत करने का है। आज राजनीतिक भारत के ऊपर सांस्कृतिक भारत को खड़ा करने, उसे तरजीह देने का समय आ गया है। राजनीति तोड़ती है, संस्कृति जोड़ती है। राजनीति को भी आज अपनी भूमिका पर विचार करने की जरूरत है। गुरुदेव रवींद्रनाथ ने कभी राजनीति के समाजीकरण की बात कही थी - आज इससे पहले शायद ही इस बात की ऐसी तीव्र और आकस्मिक आवश्यकता अनुभव की गई हो।

नव-चैतन्य के महावट को श्रद्धापूरित नमन!

(नवनीत, मई 2024 अंक में प्रकाशित.)


-शिवदयाल 

  ईमेल : sheodayallekhan@gmail.com


Tuesday 17 October 2023

         'औद्योगिक सभ्यता का सीमांत'

इस लेख के पहले अनुच्छेद(पैराग्राफ) को आज की अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों(रूस-यूक्रेन युद्ध तथा इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष) को दृष्टिगत रखते हुए अपने हिसाब से संशोधित करते हुए पढ़ें और गुनें। यह लेख वर्ष 2011-12 के दौरान दक्षिणी यूरोप के देशों में उभरे युवा-आक्रोश की पृष्ठभूमि में लिखा गया था। तब से दुनिया में बहुत कुछ घटा। बीच में एक वैश्विक महामारी के दुर्दांत और मर्मांतक अनुभव से भी हमारी भोग-वृत्ति और हिंसाचार पर कोई फर्क नहीं पड़ा। वास्तव में 'चने को भाड़ में झोंकने' की प्रक्रिया और तेज हो चुकी है। 

            औद्योगिक सभ्यता का सीमांत

                                            -शिवदयाल 

यह नहीं कि युद्ध के बादल मँडरा रहे हैं लेकिन लगभग पूरी दुनिया में हलचल-सी है। वैसे भी युद्ध की अनुपस्थिति का यह अर्थ नहीं कि शांति है, संघर्ष नहीं है। संघर्षों से अपने ढंग से चीजें बदलती हैं, उनका दुनिया पर प्रभाव पड़ता है। कई तरह के संघर्षों में अभी दुनिया उलझी हुई है - व्यापारिक संघर्ष, सर्वसत्तावादी सत्ताएँ और आर्थिक उपनिवेशवाद तथा संसाधनों पर असमान नियंत्रण एवं वितरण - ये सब स्थितियाँ संघर्ष की उपस्थिति का ही प्रमाण हैं। 

लेकिन ये संघर्ष ही इस हलचल को पूरी तरह परिभाषित नहीं करते। कुछ और भी है जो समान रूप से ग्रह के निवासियों को उद्वेलित कर रहा है। वह है यह आशंका कि क्या धरती पर हमारे रहने की दशाएँ बदल रही हैं? यदि हाँ, तो क्या मनुष्य समाज इन बदली हुई दशाओं के साथ अनुकूलन करने में समर्थ या सफल हो सकेगा? क्या सचमुच प्रकृति कुपित है, और इसीलिए दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश की भी परीक्षा ले रही है - किस्म-किस्म के चक्रवात जिनमें तीन सौ किलोमीटर तक की रफ्तार से हवाएँ चलती हैं। बाढ़, भूस्खलन, समुद्री चक्रवात और ... सुनामी! ज्वालामुखी भी ताबड़तोड़ फूट रहे हैं। प्रकृति द्वारा प्रस्तुत इन चुनौतियों से जूझने में बहुत शक्ति जा रही है, लेकिन आदतन एक बार संकट टल जाने के बाद हम वापस अपने आप में लौट आते हैं, यानी यथास्थिति में।

अब एक दूसरा दृश्य! एक अधेड़ ग्रीक नागरिक ने एक अध्ययन दल को बताया, ‘‘ एक आसान लक्ष्य बनाए जाने के कारण मैं अपने देश से उकता गया हूँ। ग्रीस को दिवालिया हो जाने दो। समूचे यूरोप को दिवालिया हो जाने दो। मैं उन्हें रोकना चाहता हूँ कि वे पैसों के लिए मेरा खून न बहाएँ, पैसे मेरे पास हैं ही नहीं!....’’ ऋण संकट से जूझते ग्रीस में युवाओं का गुस्सा उबल पड़ा। उससे पहले स्पेन में दो हफ्ते की जबरदस्त हड़ताल हुई। वहाँ के युवा सरकार की मितव्ययिता की नीति का विरोध कर रहे हैं। स्पेन के युवा अपने देश के लिए एक बिलकुल नई राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था चाहते हैं। यही माँग पुर्तगाल तक पहुँच गई और अब इसकी प्रतिध्वनियाँ ग्रीस में भी सुनाई पड़ रही हैं। अंदेशा है कि समय बीतने के साथ यूरोप में हर कहीं इसकी अनुगूँज सुनने को मिल सकती है।

डोमिनिक रेनी एक राजनीतिविज्ञानी हैं और वे पेरिस के थिंक टैंक कहे जाने वाले ‘फाउंडेशन फाॅर पोलिटिकल इनोवेशन’ के जेनरल सेक्रेटरी भी हैं। वे कहते हैं कि यह आंदोलन उन तनावों का प्रतिनिधित्व करता है जिन्हें यूरोप के युवा झेल रहे हैं। यह पीढ़ी राजनीतिक और लोकतांत्रिक अर्थों में अधिक दुर्द्धर्ष है। यह जानना रोचक होगा और अपने देश के लोगों के लिए कुछ चकित करने वाला भी कि यूरोप के युवाओं के गुस्से का सर्वप्रमुख कारण यह है अब उनके समाज और सत्ताओं के पास उन्हें देने के लिए वह सब सुख-साधन और स्वतंत्रता नहीं, जिनका उपभोग स्वयं उनके माता-पिता, अर्थात पूर्ववर्ती पीढ़ी करती आई थी। रोजगार, केरियर और अवकाश (मुक्त समय) की यूरोपीय युवाओं की यह चिन्ता कोई नई नहीं है। पिछले कुछ दशकों में इन मुद्दों पर निराशा इस हद तक बढ़ी है कि इंग्लैण्ड सहित कई देशों में आव्रजन सम्बंधी नीतियों का भी विरोध हुआ है जिनके अंतर्गत दूसरे देश के लोगों को यूरोपीय देशों में रोजगार मिलता है। कहीं-कहीं निराशा नृजातीय तनावों के रूप में प्रकट होती रही है। यह स्थिति धनाढ्य उत्तरी यूरोप तथा कमतर पूर्वी एवं दक्षिणी यूरोप में बनी रही है।

जैसा कि विश्लेषक कहते हैं ग्रीस, स्पेन, पुर्तगाल आदि देशों में जो युवा देश की सत्ता के खिलाफ खुलकर सामने आए हैं, उन्हें लगता है कि उनके समाज और उनके देश की सरकारों ने उनकी कोई सुध नहीं ली और उनकी आकांक्षाओं को विफल किया है। पिछले महीनों में ‘अरब-वसंत’ लाने वाले समानधर्मा तरुणों से प्रेरणा लेकर सत्ता और नीतियों को बदलने के संकल्प के साथ वे सड़कों पर आए हैं। मित्तव्ययिता और संयम बरतने की उनकी सरकारों की अपील उनको जैसे मुँह चिढ़ा रही है। हाँ, यह विडम्बना है कि सरकार की वृद्ध लोगों की सामाजिक सुरक्षा और पेंशन सम्बन्धी प्रावधानों का भी वे खुलकर विरोध कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि उनके हितों की कीमत पर बूढ़े सब माल काट ले जा रहे हैं। पेरिस स्थित ‘फाउंडेशन फाॅर पोलिटिकल इनोवेशन’ द्वारा कराए गए एक अध्ययन - ‘2011, वर्ल्ड यूथ्स’ में यह बात उजागर हुई है कि यूरोप आने वाले दिनों में पीढ़ियों के बीच जबरदस्त संघर्ष से दो-चार होगा। वहाँ युवाओं में यह समझ बन रही है कि ज्यों-ज्यों आबादी बूढ़ी होती जाएगी, त्यों-त्यों यांत्रिक रूप से वह सामूहिक धन अवशोषित करती जाएगी जिसकी कीमत युवाओं को ही चुकानी पड़ेगी। उन्हें उन ऋणों का भी भुगतान करना पड़ेगा जो कि वर्तमान जीवन स्तर को संभव बनाने के लिए उगाहे गए थे लेकिन जिसका वे स्वयं उपभोग नहीं कर पाएँगे। युवाओं को लगता है अब भी बुजुर्ग या अनुभवी लोग उनके लिए बहुत कम जगह छोड़ रहे हैं - उत्तरदायित्व की दृष्टि से भी और सुविधा की दृष्टि से भी।

इस स्थिति को हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की पीढ़ी ने ‘वृद्धि दर’ की दौड़ में अपने लिए जिस भोग-विलास का सामान इकट्ठा किया, उसे अपनी भावी पीढ़ी तक पहुँचाने में असफल रही। यह विलास इस तरह अल्पजीवी दिखाई देता है जिसकी उम्र बमुश्किल साठ-सत्तर साल रही। अभी तो यह परिघटना मुख्यतः पूर्वी यूरोप एवं दक्षिणी-यूरोप में ही अधिक परिलक्षित हो रही है लेकिन उत्तरी यूरोप भी इससे शायद ही अछूता रह पाए। उत्तरी यूरोप के देशों ने समय रहते अपनी नीतियों में कुछ सुधार शुरू कर दिए थे।

तो दो सौ साल पूर्व के औद्योगिकीकरण के परिणामों की विवेचना का एक यह आधार भी हो सकता है कि प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन, मानव श्रम के अपरिमित शोषण और मूल निवासियों एवं औपनिवेशिक आबादियों के नृशंस दमन का फलाफल यह कि पश्चिम का उपभोग-स्तर ऊपर उठ जाए, उनके लिए दुनियावी सहूलियतों का ऊँचा से ऊँचा मुकाम हासिल किया जाए, और तब भी वह आगे की पीढ़ियों के लिए कम पड़े। इस पूरी प्रक्रिया में जिस जीवनमूल्य का निर्माण हो उसमें युवतर पीढ़ी अपनी अग्रज पीढ़ी को जरूरत के समय प्रदान की जा रही मूलभूत सुविधाओं पर एतराज करे, क्योंकि इसके लिए उसे कमतर सुविधाओं और सुरक्षा से संतोष करना पड़ेगा। पूर्व की महानता का बखान न भी करें तो पिछले दो सौ सालों में ‘नई सभ्यता’ का निर्माण करके पश्चिम अपने लिए यही जीवनमूल्य सृजित कर पाया है।

युवा दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में उबल रहे हैं, अलग-अलग कारणों से। अरब के युवाओं के आक्रोश का कारण सर्वसत्तावादी व्यवस्था का उत्पीड़न, भ्रष्टाचार, गरीबी और बेकारी है। कहीं-कहीं बाहरी हस्तक्षेप भी एक कारण है। वे लोकतंत्र और सत्ता में आम जनता की भागीदारी के लिए भी लड़ रहे हैं, और कठोर दमन के शिकार हो रहे हैं। उस प्रकार के दमन की उमीद यूरोप में नहीं की जा सकती क्योंकि वहाँ लोकतांत्रिक सरकारें काम कर रही हैं। वहाँ भी बेकारी या रोजगार के अवसरों का सीमित होना जरूर एक बड़ा कारण है युवाओं के आक्रोश का, लेकिन वास्तव में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद कायम हुई सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था से उनका विश्वास उठ गया है जिसमें उनकी आकांक्षाओं के लिए जगह ही नहीं बचती, उनके लिए सुखद और सुरक्षित भविष्य का आश्वासन नहीं मिलता। यानी यूरोप और एशिया, दोनों ही महादेशों में युवाओं का अपने यहाँ की व्यवस्थाओं पर भरोसा नहीं रह गया है।

क्या यह आकस्मिक है कि अरब के तेल भण्डारों से ही यूरोप का बैभव बना है? ये भण्डार दिनोंदिन खाली हो रहे हैं। यही क्यों, यूरोप के कोयला भण्डार भी तो अक्षय नहीं है। दूसरी ओर उपभोग की लालसा बढ़ती ही जा रही है, कम होने का नाम नहीं लेती। उपभोग के लिए उत्पादन, उत्पादन के लिए ऊर्जा, और ऊर्जा के लिए? धरती, उसके संसाधन जो धीरे-धीरे चुक रहे हैं, शेष हो रहे हैं। वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों पर निर्भर हो रहने की कोई स्थिति नहीं है, आगे भी बनती दिखाई नहीं देती। परमाणु ऊर्जा के सक्षम विकल्प के रूप में इस्तेमाल होने पर चेरनोविल और फुकुशिमा जैसे हादसों से बार-बार सवाल उठ रहे हैं। परमाणु हादसों को रोकने की शत-प्रतिशत गारंटी नहीं है, हादसों के प्रभावों पर तो कोई वश ही नहीं है, ऐसे में परमाणु ऊर्जा को सक्षम विकल्प के रूप में कैसे देखा जा सकता है? दूसरी ओर लगातार बिगड़ता पर्यावरण ऊर्जा के परम्परागत स्रोतों - कोयला, गैस, तेल आदि के इस्तेमाल के प्रति सचेत कर रहा है।

यदि यह स्थिति, जिसे हम ‘ग्रोथ’ (वृद्धि) कहते हैं, उसकी सीमा है तब इसमें कोई संदेह नहीं कि हम उत्तर-औद्योगिक समाज के उद्भव के निकट हैं। औद्योगिकीकरण काल की उत्पादन-पद्धति की जहाँ स्पष्ट सीमा बनती दिखाई दे रही है, वहीं सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं की क्षमता और पहुँच लगातार सिकुड़ रही है, हमारे समक्ष उत्पन्न चुनौतियों का मुकाबला करने में इनकी सक्षमता संदिग्ध हो गई है। यहाँ बाजार का जिक्र करना भी जरूरी है। बाजार हमारी कोई मदद नहीं कर पा रहा। वास्तव में बाजार एक ऐसी सामाजिक संस्था है जिसका मूल उद्देश्य मानवीय सृजन क्षमता के विकास के लिए अवसर उपलब्ध कराना, तथा अन्तरनिर्भरता की एक स्थाई व्यवस्था का निर्माण करना रहा है जिसमें लोग एक-दूसरे की जरूरतों की पूर्ति कर सकें। केवल और केवल मुनाफा से जुड़कर बाजार अपनी भूमिका खोकर अपने मूल उद्देश्य से ही भटक गया है। वह अपने आप में एक स्वतंत्र संस्था या कि सत्ता बन गया है जिसकी समाज की मूलभूत आवश्यकताओं के साथ कोई संगति नहीं। बाजार पर समाज का नियंत्रण या तो रहा नहीं, या अपर्याप्त है, उल्टे बाजार ही समाज की संस्थाओं को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है। यह चने को जल्दी-से-जल्दी भाड़ में झोंकने जैसा है। यदि समाज की सारी शक्ति बाजार को बनाने-बढ़ाने में ही प्रयुक्त होती रही और बाजार यदि खपत की यही गति बनाए रखने में सफल हो गया तो यह जल्द ही हमें बिल्कुल रीता कर देने वाला है।

पश्चिम के आंदोलनकारी युवाओं का ध्यान इस ओर जरूर जाना चाहिए कि धरती की क्षमता अब चुक रही है, उसका धैर्य भी समाप्त हो रहा है, उत्पादन के पुराने औजार अब काम के नहीं रहे। अब यह संभव नहीं कि उन्हें भी वह सब कुछ (वह ऐश और बेतकल्लुफी!) मिल जाए जो उनके बाप-दादों को नसीब हुआ था। पश्चिमोन्मुखी एशियाई और अफ्रीकी युवाओं को भी पश्चिम के अपने भाइयों की इस जद्दोजहद से सीख लेनी चाहिए और अपना रास्ता खुद बनाने की तैयारी करनी चाहिए। उन्हें इस प्रश्न से भी जूझना चाहिए कि कहीं वास्तव में हम औद्योगिक सभ्यता के सीमांत पर तो नहीं? यहाँ से दुनिया को आगे ले जाने के लिए पुरानी युक्तियों तथा स्थापनाओं से काम नहीं बनने वाला। 

यह युवा विश्व है - 1.1 बिलियन युवाओं की दुनिया। ज्ञात आँकड़ों में अब तक युवाओं की इतनी बड़ी तादाद दर्ज नहीं है। दुनिया का भविष्य उनके हाथों में है। दूसरी ओर मानव जाति आज जितनी सक्षम कभी न थी। जितना ज्ञान और कौशल उसने अर्जित किया है उसमें यह असंभव नहीं कि वह विश्वास के साथ दूसरी ओर देखे और कदम बढ़ाए। (2012 में जनसत्ता में प्रकाशित।)

Thursday 31 August 2023

                स्वतन्त्रता के उस स्वर्ग की ओर 

                      

                               -शिवदयाल

गुलामी चली जाती है, अपने चिह्न छोड़ जाती है - प्रतीकों के रूप में स्थूल और प्रवृत्तियों तथा आदतों और मानसिकता के रूप में अभौतिक चिह्न अथवा अवशेष। भौतिक अवशेष तो आसानी से मिट जाते हैं या मिटा दिए जा सकते हैं, लेकिन अभौतिक अवशेषों की उम्र लंबी होती है। इनसे मुक्त होने के लिए अलग से प्रयास संगठित करने पड़ते हैं, और वास्तव में यह गुलामी के विरुद्ध एक और संघर्ष ठानने जैसा उद्यम होता है। 

स्वतंत्रता के अमृत काल में आजादी के 75 वर्ष बाद गुलाम मानसिकता की बात करना अपने आप में एक विडंबना ही है। सचमुच अगर मानसिकता के रूप में भी गुलामी के अवशेष बच गए थे तो उनको तिरोहित करने के लिए पचहत्तर वर्ष पर्याप्त से बहुत अधिक है। इसका अर्थ यह हुआ कि स्वतंत्रता पश्चात भी हमें परतंत्रता के प्रतीकों एवं व्यवहार प्रतिमानों के साथ जीना सुविधाजनक लगा। इसके विरुद्ध अलग से संघर्ष करने की, अभियान चलाने की जरूरत हमें महसूस नहीं हुई। लेकिन आज अगर इन बंधनों - गुलाम मानसिकता के बंधनों की जकड़न हमें महसूस हो रही है तो इसका अर्थ यही है कि हमारा राष्ट्रीय जीवन इनसे प्रभावित हो रहा है, उसका प्रवाह अवरुद्ध हो रहा है। साथ ही, स्वतंत्रता का सुफल अभी सबको लब्ध नहीं हो सका है।  इसका एक और कहीं गहरा अर्थ यह हो सकता है कि इनसे हमारी राष्ट्रीयता के आधार पर आघात हो रहा है, और तब यह सच में एक अत्यंत शोचनीय स्थिति है।  

गुलाम मानसिकता अथवा मानसिक पराधीनता का एक सीधा अर्थ है अपनी सोच में मौलिकता का, नवीनता का अभाव। इसके स्थान पर अपने स्वामी की दृष्टि से जगत व्यापार को देखना, उनके ही आदर्शों को अपना जीवन आदर्श बनाना, उनके प्रतीकों को अपना मानना, उन्हीं की भाषा बोलने में गौरव अनुभव करना। पराधीन मानसिकता का एक और मजबूत लक्षण है अधीनता और अनुकरण में ही जीवन की उपलब्धि मानते हुए दूसरों को अपने अधीन और अनुगामी बनाने की लालसा और प्रयत्न। सवाल उठता है कि स्वतंत्र भारत में हमारे स्वामी कौन हैं जिन्हें अपना आदर्श मानकर उनका अनुकरण करना है? मानसिक पराधीनता के दृष्टिकोण से हमारे स्वामी, उपनिवेशक स्वामी वही अंग्रेज अब तक बने हुए हैं जो पचहत्तर वर्ष पहले चले गए थे। हमारी गुलाम मानसिकता की जड़ दो सौ वर्षों के उपनिवेश काल में है। 

उपनिवेश काल में हमारे कई राजनीतिक एवं सांस्कृतिक नेता और कतिपय बुद्धिजीवी यह मानते रहे थे कि हमारे लिए केवल राजनीतिक स्वतंत्रता ही नहीं, मानसिक और वैचारिक स्वतंत्रता भी जरूरी है। औपनिवेशिक मानस के रहते हम पूर्ण स्वराज के लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकते। कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने 1905 में अपनी पुस्तक 'स्वदेशी समाज' में औपनिवेशिक शासन का एक विकल्प ही प्रस्तुत किया और स्वदेशी को पहले विचार के स्तर पर अपना लेने का स्पष्ट आग्रह उसमें था। औपनिवेशिक मानस स्वदेशी समाज की स्थापना नहीं कर सकता था। अपनी रचनाओं में कविगुरु ने 'आत्मा की स्वतंत्रता' की बात कही है। 1908 में गांधी जी ने हिंद स्वराज में वैकल्पिक सभ्यता की प्रस्तावना रखते हुए यह बात भी सामने रखी कि यदि हम यूरोपीय सभ्यता और उसके प्रतीकों को ही अपना आदर्श मानते रहे तो कभी स्वराज प्राप्त नहीं कर सकेंगे। मानसिक पराधीनता के विरुद्ध सबसे व्यवस्थित स्थापना रखी चिंतक और दार्शनिक कृष्णचंद्र भट्टाचार्य ने। उन्होंने कहा कि 'मनुष्य का दूसरे मनुष्य के ऊपर प्रभुत्व सबसे अधिक स्पष्टता के साथ राजनीति में प्रतिबिंबित होता है, लेकिन कहीं कम प्रगट रूप में लेकिन निश्चित रूप से एक संस्कृति का प्रभुत्व दूसरी संस्कृति में विचारों के क्षेत्र में प्रतिबिंबित होता है। यह प्रभुत्व वास्तव में अधिक गंभीर परिणामों का कारण बनता है क्योंकि साधारणतया इसे अनुभव ही नहीं किया जाता।' आगे वे यह भी कहते हैं, ''भले ही पश्चिमी शिक्षा ने हमारा भला किया हो, उसका हमारी प्राचीन शिक्षा के साथ आत्मसातीकरण नहीं हुआ। दोनों पद्धतियों का तुलनात्मक मूल्यांकन किए बिना पश्चिमी पद्धति को श्रेष्ठ मान लिया गया। उस  'प्राच्य संसार का भारतीय मानस' सांस्कृतिक चेतना की निचली तहों में दब गया है। यह एक सामान्य व्यक्ति के ऊपर किसी प्रेत के सवार होने जैसा है।''

विडंबना इतनी बड़ी कि यह प्रेत पश्चिमी मूल्यों और मानकों का, आज भी साधारण भारतीय, बल्कि उनमें भी पढ़े-लिखों पर कहीं अधिक बल के साथ सवार है। कई विचारकों ने विखंडित भारतीय मानस की चर्चा की है। आश्चर्य यह है कि इतनी ताकीदों और चेतावनियों के बावजूद हमने 'आत्मा की स्वतंत्रता' तो दूर, विचार-स्वातंत्र्य का, पराधीन मानस से मुक्ति का रास्ता भी नहीं पकड़ा। स्वतंत्र भारत में भी वैचारिक परिसर में औपनिवेशिक मानस या मानसिक पराधीनता से मुक्ति की बात जोर देकर की गई, लेकिन स्वयं हमारी सरकारों की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। स्वातंत्र्योत्तर भारत के राजनीतिक विचारों एवं विकास क्रम पर यदि गहराई से विचार करें तो कांग्रेस और वामदलों को छोड़कर लगभग सभी राजनीतिक दल ऐसे मुद्दों को लेकर चले हैं जो कहीं ना कहीं औपनिवेशिक मानसिकता पर चोट करते हैं और भारतीय जनमानस को स्वराज के मूल्यों से भी कुछ न कुछ जोड़ते हैं, चाहे वह शिक्षा का सवाल हो, भाषा का सवाल हो, अर्थनीति या राजव्यवस्था का सवाल हो। स्वयं लोकतंत्र को मजबूत और सर्वव्यापी बनाना, एक विकेंद्रित राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था, पंचायती राज और ग्राम स्वराज्य, चौखंभा राज्य आदि सभी संकल्पनाएं विउपनिवेशीकरण का ही आग्रह रखती हैं। दूसरी ओर स्वतंत्र भारत में सरकारों का जोर स्थिरता पर रहा, स्थिरता उसी प्रणाली की जो अंग्रेज हमें सौंप गए थे, बल्कि स्वयं हमने संविधान के माध्यम से जिन्हें अपना लिया था। 


मानसिकता तो एक विशेष परिवेश और व्यवस्था में पनपती है, दृढ़ होती है। उपनिवेश काल की व्यवस्था अगर स्वतंत्र भारत में भी जारी रही तो गुलाम मानसिकता के बंधन तो और मजबूत होते गए। उसको तो कायदे से चुनौती मिली ही नहीं कि क्योंकि स्वयं सत्ता उसको प्रश्रय देती रही। आज हमें यह सोचना चाहिए कि स्वतंत्रता पश्चात हमने नया क्या गढ़ा जिसे मौलिक रूप से अपना कहें? स्वभाषा के स्थान पर औपनिवेशिक शासन की भाषा ही स्वतंत्र भारत की नियंता बनी रही। आज तो स्थिति यह है कि मध्यवर्गीय स्कूली बच्चे किस्से -कहानियां भी अंग्रेजी में पढ़ते-समझते हैं। आज भी अंग्रेजी शासन की, वर्चस्व की भाषा है। कोई प्रधानमंत्री हिंदी या कोई देसी भाषा कैसी बोलते हैं, इस पर कोई ध्यान नहीं देता, अंग्रेजी कितनी अच्छी तरह बोलते हैं - यह उनकी परीक्षा होती है। महान प्रधानमंत्री अंग्रेजी भी अच्छी बोलते हैं! गैर-हिंदी प्रदेशों में अंग्रेजी ही संपर्क भाषा के रूप में काम करती है, पढ़े-लिखे तबकों के बीच विशेष रूप से। दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों के प्रभु वर्ग की भाषा, कहीं-कहीं तो मातृभाषा अंग्रेजी है। हिंदी लेखकों का भी अंग्रेजी मोह और अंग्रेजी जानने, न जानने की कुंठा वितृष्णा पैदा करती है। भाषा की दृष्टि से तो हम अंग्रेजी राज में ही रह रहे हैं, उन्हीं की प्रजा की तरह हैं। सर्वोच्च न्यायालय की भाषा भी अंग्रेजी है। हिंदी से कमाने-खाने वाले फिल्मी दुनिया के लोग भी अंग्रेजी झाड़ कर अपनी विशिष्टता प्रदर्शित करते हैं। हाल ही में प्रतियोगिता परीक्षाओं में भाषाई विकल्प की सुविधा मिली है लेकिन इसके प्रभाव लंबे समय बाद ही दृष्टिगोचर होंगे।


यह तो रहा स्वतंत्र भारत में अपनी भाषा का हाल! शिक्षा प्रणाली को लेकर नया क्या हुआ जिसे हम अपना कहते? अपनी भाषा रही नहीं, अपनी शिक्षा प्रणाली भी नहीं बन सकी। उन्नीसवीं सदी में जो अंग्रेजों ने शिक्षा व्यवस्था बनाई उसे ही हम आज तक चला रहे हैं। हम स्वतंत्र हुए, इसका आभास हमारी शिक्षा प्रणाली ने नहीं होने दिया - न विषयवस्तु के स्तर पर, न व्यवस्था और संगठन के स्तर पर। बस हमने इसमें अपनी तरफ से संस्थाएं जोड़ीं। पिछले कुछ दशकों में 'ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था' का हल्ला मचा और स्थिति आज यह बन आई है कि ज्ञान अब पैसे से खरीदा जा सकता है। यह कम से कम भारत के इतिहास में पहली बार हुआ। अब तक ज्ञान साधना से अर्जित किया जाता रहा था। शिक्षा प्रणाली किसी राष्ट्र के ध्येय को, चरम मूल्यों को, आदर्शों को प्रतिबिंबित करती है। इस पर  पीढ़ियों के निर्माण का  गुरुतर दायित्व होता है। यदि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भी हमारी शिक्षा प्रणाली अपरिवर्तित रही तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमने यूरोप और पश्चिम के राष्ट्रीय मूल्यों और आदर्शों को ही हूबहू अपना लिया। हमने भी वही पहुंचना तय किया जहां कि वे पहुंचे हुए हैं और अभी और आगे जाना चाहते हैं, हालांकि आगे रास्ता है नहीं। मतलब कि पश्चिम के अनुगमन को ही हमने स्वयं अपनी नियति बना लिया। अनुगामी, गुलाम मानसिकता के साथ ही हमने स्वतंत्र भारत की पीढ़ियों को शिक्षित-प्रशिक्षित किया। अब कैसे अंग्रेजी जाती, कैसे कोई भारतीय भाषा उसके सामने खड़ी होती, उसका स्थानापन्न बनती? कैसे भारत में इंडिया का वर्चस्व नहीं बनता? औपनिवेशिक भारत का अंग्रेजी पढ़ा-लिखा वर्ग जिसे गांधी जी ने 'हृदयहीन' कहा था और जो औपनिवेशिक शासन का मजबूत स्तंभ था, स्वतंत्र भारत में उसी की तूती बोलती रही तो अचंभा कैसा?

शिक्षा व्यवस्था में कुछ भी 'भारतीय' रखा ही नहीं गया। बस ब्रिटेन और पश्चिम का अंधानुकरण - एक ऐसे देश में जहां तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला जैसी विश्व-स्तरीय संस्थाएं  डेढ़-दो हजार साल पहले थीं। प्राचीन भारतीय विद्या संस्थान जैसा एक संस्थान हम खड़ा नहीं कर पाए। विवेकानंद, टैगोर और गांधीजी भारतीय पद्धति की शिक्षा के समर्थक थे। टैगोर ने शांतिनिकेतन और विश्व भारती जैसी संस्थाएं खड़ी कीं। ब्रह्म समाज और आर्य समाज ने भी इस दिशा में कुछ मौलिक प्रयास किए लेकिन उन्हें भी तो राष्ट्रीय शिक्षा की मूल धारा में ही अंततः समाहित होना था। आखिर तो कविगुरु के विश्वभारती की भी मौलिकता नष्ट करके उसे भी प्रचलित विश्वविद्यालयी ढांचे में ढाल दिया गया। गांधीजी के बुनियादी विद्यालयों का भी यही हश्र हुआ। एक अभिनव कोशिश भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने की थी। उन्होंने प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित एवं पुनर्स्थापित करने के लिए नालंदा में 1951 में 'नव नालंदा महाविहार' की स्थापना की। उनकी कल्पना थी कि यह नया विहार समूचे एशिया के लिए ज्ञान का प्रकाश स्तंभ बनेगा। ज्ञातव्य हो कि नव नालंदा महाविहार का आदर्श ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज नहीं बल्कि स्वयं प्राचीन नालंदा महाविहार और विक्रमशिला विश्वविद्यालय था, यानी शुद्ध भारतीय ज्ञान परंपरा की पुनर्स्थापना की ठोस चेष्टा राजेंद्र बाबू ने की, लेकिन स्वयं उनकी ही सरकार का अपेक्षित सहयोग इस शिक्षा केंद्र को नहीं मिला। इसका विकास अपेक्षित स्तर तक नहीं हो सका। अभी कुछ वर्ष पहले एक नये 'नालंदा यूनिवर्सिटी' की स्थापना बड़े धूमधाम से की गई लेकिन ध्यान रहे कि इसका आदर्श पश्चिमी शिक्षा संस्थाएं हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा और परंपरागत शिक्षा पद्धति से इसका कोई संबंध नहीं।

हद तो यह कि स्वतंत्रता पश्चात अपनी जरूरतों की राज व्यवस्था का निर्माण भी हम नहीं कर सके। सत्ता के हस्तांतरण और ब्रिटिश तरीके की संसदीय प्रणाली को अपनाने के बाद इसकी जरूरत ही कहां बची। आजकल संविधान को लेकर एक भारी संरक्षणवादी और शुद्धतावादी रवैया दिखाई देता है, मानो संविधान राष्ट्र के  ऊपर ईश्वर प्रदत कोई चीज है। 1954 में जयप्रकाश नारायण ने कांग्रेस के साथ प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सहयोग के नेहरू जी के प्रस्ताव पर एक 14 सूत्री कार्यक्रम भेजा था। इस पत्र की शुरुआत में ही उन्होंने नेहरू जी को लिखा कि 'मुझे हैरत है कि आपने ऐसे संविधान को स्वीकार कैसे कर लिया?' इन 14 सूत्री कार्यक्रम का पहला ही बिंदु संविधान संशोधन था। यह सचमुच सोचने की बात है कि एक इतने बड़े गौरवशाली अतीत वाले नव-स्वतंत्र देश ने औपनिवेशिक शासन तंत्र को ज्यों का त्यों कैसे अंगीकार कर लिया! फिर मामूली फेरबदल से उपनिवेश काल में पलता रहा शासक-शासित संबंध आखिर किस प्रकार बदला जा सकता था। तो स्वतंत्र देश की प्रजा भी प्रत्यक्षतः कलेक्टर और दारोगा के अधीन ही रही, उनके राजनीतिक वरिष्ठ या बॉस जो ब्रिटिश पार्लियामेंट और यहां असेंबली और वायसराय हाउस में बैठते थे, अब भारतीय संसद और विधानसभाओं में बैठते थे, केवल उनका रंग और कुछ हद तक वेशभूषा बदल गई थी। लोकतंत्र में अगर लोक का शासन स्थापित हुआ मान भी लें, तो तंत्र वही पुराना अत्याचारी, शोषक, उत्पीड़क औपनिवेशिक तंत्र था। ऐसे में कलेक्टर या किसी भी राज्य कर्मचारी से एक साधारण नागरिक का कैसा संवाद हो सकता था?

लोकतंत्र में भी तो राजशक्ति की ही महिमा बननी थी। आज भी भारतीय प्रशासनिक सेवा में आना सबसे बड़ी उपलब्धि है क्योंकि उसमें पावर है, प्रिविलेज है, प्रेस्टीज है(और आज बहुत पैसा भी)। पचहत्तर वर्ष बाद ब्रिटिश काल की इंडियन इंपीरियल सर्विस और इंडियन सिविल सर्विस अब 'इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस - आई ए एस' नाम की केंद्रीय सेवा उपनिवेश काल का जीवंत अवशेष है जिसके हाथ में ग्राम स्तर, जिला स्तर, राज्य स्तर से लेकर केंद्र स्तर तक का प्रशासन। है। हमारा जिला अथवा जनपदीय प्रशासन पूरी तरह कलेक्टर अथवा जिलाधिकारी केंद्रित है जबकि स्थानीय स्तर पर थाने का दरोगा सबसे अहम पदधारी है। यह व्यवस्था अपनी उपनिवेशक काल के मुकाबले कहीं अधिक उत्पीड़क है। मानव-अधिकार हनन के मामलों का अंबार इस तथ्य की पुष्टि करता है। नौकरशाही किसी भी शासन की जरूरत होती है लेकिन भारत की नौकरशाही एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश की नौकरशाही जैसी क्या वास्तव में है? सच्चाई यह है कि कुछ कमियों के बावजूद पीठ पीछे अगर न्यायपालिका ना हो तो एक आम भारतीय नागरिक की कोई हैसियत नहीं। जनता की सेवा के नाम पर संस्थाएं या विभाग चलते हैं लेकिन उनका संचालन और कार्यप्रणाली ही ऐसी ही है कि जनता ही उनकी सेवा-टहल में लगी रहे, जी-हुजूरी और खुशामद करे, पैरवी करे और जायज कामों के लिए भी घूस दे। जैसे पुराने कानूनों को औपनिवेशिक अवशेष मानकर हटाया गया, उसी प्रकार इस प्रशासनिक व्यवस्था को भी लोकतंत्र के मूल्यों और मर्यादाओं के अनुरूप ढालना होगा यदि हम सचमुच गुलाम मानसिकता से मुक्त होना चाहते हैं। हमें एक नई लोक संवेदी राज व्यवस्था के निर्माण के लिए अब प्रस्तुत होना चाहिए। यह नई व्यवस्था कैसी हो इस पर बहुत कुछ पहले ही कहा जा चुका है।


एक और भारी कमी रह गई स्वातंत्र्योत्तर भारत के नेतृत्व में। उपनिवेश काल में अंग्रेजों ने जिन संरचनाओं को अपने औपनिवेशिक हित में बल्कि औपनिवेशिक लूट के लिए तोड़ा-फोड़ा था, उनकी पुनर्रचना की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया गया? जो कुछ लंबे दो सौ सालों में ध्वस्त हुआ, उसे फिर से खड़ा करने की कोशिश ही नहीं हुई, हुई भी हो तो प्राथमिकता में यह बात नहीं रही। यह बात एक चैतन्य नागरिक को सचमुच अवसन्न करती है। अंग्रेजों ने ग्राम व्यवस्था, उसके आत्मनिर्भर अर्थतंत्र को तहस-नहस किया था। उत्पादक इकाइयों को जबरन बंद करा कर वि-उद्योगीकरण, de-industrialisation की मुहिम चलाई थी। हमारे किसानों को कंगाल और दस्तकारों को पंगु बना डाला था। हमारे ग्राम समुदाय की शक्ति, उसका स्वत्व खींच लिया था। आश्चर्य, स्वतंत्रता पश्चात ग्राम पुनर्निर्माण हमारे पुनर्निर्माण के संकल्पों में शामिल नहीं था। किसानों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया, जो खड़े हुए थे तो आजादी मिली थी। कुछ छिटपुट सहकारी खेती के प्रयास हुए वे विफल ही रहे। जमीदारी उन्मूलन पूरी तरह से हुआ नहीं, भूमि वितरण का काम नहीं हुआ, भूमि संबंध नहीं बदले। सामुदायिक विकास योजनाओं और कार्यक्रमों को भी अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी और कृषि और ग्रामीण क्षेत्र पिछड़ते गए। साथ ही ग्रामीण और शहरी भारत के बीच फांक बढ़ती चली गई। वह तो 1962 और 1965 के युद्धों का सबक था जो हमारा ध्यान कृषि और किसानों की ओर गया। यह सरकार की प्राथमिकताओं का हाल रहा, तो दूसरी ओर समुदाय दलों के वोट बैंक में बंटता-छंटता चला गया, आज लगभग बिखर चुका है। सबसे दर्दनाक बात हुई आजाद भारत के हुक्मरानों के हाथों कि पंचायत चुनाव में भी वह अपनी नाक घुसेड़ने लगे, दलीय आधार पर चुनाव होने लगे। तो समुदाय जो कुछ उपनिवेश काल के बाद बचा भी रह गया हो, उसे भी भारत की लोकतांत्रिक राजनीति ने तोड़ डाला। लोकतंत्र के नाम पर राज करने, राज भोगने की प्रवृत्ति, अपने ही देशवासियों पर शासन करने की ललक और लालसा राजनीति का मूल उद्देश्य बन गई है। यह अपने ही लोगों को उपनिवेशक की दृष्टि से देखने जैसा है। हमारे कर्णधारों ने भारतीय जनता के लिए स्वतंत्रता का अर्थ इतना संकुचित कर दिया कि वह केवल अंग्रेजी शासन से मुक्ति भर रह गया। बाकी तो जनता को बांटने का औपनिवेशिक एजेंडा अब तक जारी है। भेद और अलगाव के नित नए आधार खोजे जाते हैं ताकि सत्ता सुलभ हो। आखिर तो सत्ता की राजनीति की जरूरत है यह। करोड़ों रुपए खर्च कर चुनाव लड़े जाते हैं। कहां से आता है यह पैसा? इतना खर्च करके किसे लाभ पहुंचता है? आखिर चुनावी खर्च में जनता का ही अपना हित कोई तो नहीं हो सकता!


गुलाम मानसिकता की जड़ कहां है, हम इतने आत्महीन और आत्मद्रोही क्यों हैं, इन गहन प्रश्नों का उत्तर तलाशने का यह उपक्रम यह कहे बिना पूरा नहीं हो सकता कि देशी के प्रति गहन वितृष्णा या कि घृणा ही हमें 'प्रगतिशील' पहचान देती रही है। स्वतंत्रता के छिहत्तर वर्षों बाद हमें अनुगमन वृत्ति से बाहर आना चाहिए और स्वाधीनता के उस स्वर्ग की ओर कदम बढ़ाना चाहिए जिसकी कल्पना गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने की थी।

- शिवदयाल (नवनीत, अगस्त 2023 अंक में प्रकाशित)

Friday 7 April 2023


मृणाल - कथा-आकाश का ध्रुव तारा


                            -  शिवदयाल


वह चिड़िया बनना चाहती थी - 'पंख खोल वह आसमान में जिधर चाहे, उड़ जाती है।.. कैसी मौज है!' जो बनना चाहती थी, वही वह बन न सकी, कहना कठिन है।

उसकी कहानी शुरू करते उसका भतीजा प्रमोद, जज प्रमोद कहता है - 'मेरी बुआ पापिष्ठा नहीं थी, यह भी कहने वाला मैं कौन हूं? पर आज मेरा जी अकेले में उन्हीं के लिए चार आंसू बहाता है।' उसके स्मरण-मात्र से अंतर में एक दाह-सी उठती है। उसके साथ जो हुआ, उसमें कहीं अपनी भी हिस्सेदारी तो नहीं थी? यह सोचकर एक अपराध बोध भी आत्मा पर बोझ बन कर बैठ जाता है। फिर चेत होता है - वह तो कथा-चरित्र है, एक पात्र - मृणाल! जैनेंद्र के उपन्यास 'त्यागपत्र' की मृणाल। उसको रचे तो अब एक सदी पूरी होने वाली होगी कुछ वर्षों के अनंतर। लेकिन न जाने क्यों मन मानो उसे एक व्यक्ति के रूप में ही याद करना चाहने लगता है। आखिर यह कैसे संभव है कि एक काल्पनिक चरित्र मन में इतनी पीड़ा उपजा दे कि अवास्तविक ही वास्तविक लगने लगे, और जो सचमुच वास्तविक है - अपने सामने यह फैली-पसरी दुनिया, उसी के प्रति आदमी एक विच्छिन्नता और विविक्ति के भाव से भरने लगे।

अपने पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी मृणाल। दो बड़ी बहनें गुजर चुकी हैं - प्रसव के दौरान। एक भाई बर्मा में बस गया है। माता-पिता को बहुत कम उम्र में खो चुकी मृणाल को भाई के रूप में पितृत्व की छाया तो मिलती है, लेकिन भाभी मां तो क्या बनती, वह तो उसके लिए महा-अनर्थकारी भूमिका में होती है। स्वयं प्रमोद अपनी मां को मृणाल की विदाई के अवसर पर रोता हुआ कहता है - तू राक्षस है। भाभी की इस भूमिका के कारण मृणाल का भाई उसे पिता का-सा संरक्षण नहीं दे पाता, अपनी बेटी जैसी बहन का जीवन नष्ट होते हुए देखता रहता है, और एक दिन असमय ही दुनिया छोड़ जाता है।

मृणाल का एकमात्र सहारा है उससे चार-पांच ही साल छोटा प्रमोद, उसका भतीजा, जिसे कभी वह बेटा कहती है, कभी भैया तो कभी गदहा! प्रमोद मृणाल का सखा भी है जिसके साथ उसका बचपन और कैशोर्य गुजरता है, जिसको वह अपने मन की बात कह सकती है। घर में बुआ-भतीजे के रूप में ये दो ही बच्चे हैं जिनके बीच पीढ़ी के हिसाब से तो दूरी है, लेकिन आयु के हिसाब से निकटता। प्रमोद का हाल यह है कि मानो उसकी बुआ ही उसके जीवन की धुरी है,वह बुआ की छाया की तरह उसके साथ लगा रहता है। उसे जरा-सा दुख पहुंचते ही वह विकल हो जाता है, कभी-कभी विद्रोही भी। विडंबना यह कि भले ही वह बुआ के सामने ललकार कर कहे कि बुआ, मेरे रहते तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, वह अवश भाव से उसे कष्ट पाते और नरक भोगते देखता रहता है, कुछ नहीं कर पाता। प्रमोद तो  होश संभालते ही, कि उसके भी पहले से बुआ की आंखों से ही दुनिया देखता है, और पाठक के समक्ष यही प्रमोद की देखी-समझी दुनिया आ खड़ी होती है। बुआ के साथ ही प्रमोद की कहानी भी चलती रहती है।

मृणाल सुंदर है - 'ऐसा रूप कब किसको विधाता देता है। जब देता है तब कदाचित उसकी कीमत भी वसूल कर लेने की मन ही मन नीयत उसकी रहती है।' मृणाल माता-पिता की छाया से वंचित होकर भी प्रसन्न दिखनेवाली , कभी-कभी क्रीड़ा-कौतुक में भी रस लेने वाली नटखट लड़की है। स्कूल जाना उसे पसंद है, किताब-कॉपी भी खूब संभाल कर रखती है, हालांकि पढ़ने में उसका उतना मन नहीं लगता। उसमें दूसरों के लिए कष्ट सहन करने का विरल गुण इसी उम्र में दिखता है। उसकी सहपाठिन शीला गणित के शिक्षक की कुर्सी की गद्दी में पिन चुभोकर रख देती है। शिक्षक पूछते हैं कि किसने यह शरारत की, तो कोई सामने नहीं आता। फिर वह एक-एक को बेंत से पीटने की बात कहते हैं। तब मृणाल खड़ी होकर कहती है - यह मेरा कसूर है मास्टर जी। फिर शीला की गलती के लिए खुद मार खाती है। आगे जाकर पता लगता है कि जैसे मृणाल का जन्म दूसरों के अपराध का दंड भुगतने के लिए ही हुआ है‌। यह जिसे सभ्य समाज कहते हैं, कितने-कितने किस्म के अपराध जिसमें होते हैं, उन सब का दंड भुगतने के लिए भी मृणाल प्रस्तुत होती है। 

जिस शीला की बात हो रही है, उसके घर मृणाल का आना-जाना बढ़ जाता है। इसकी परिणति यह होती है कि एक दिन कोठरी में बंद करके उसकी भाभी, प्रमोद की मां उसे बेंत से पीटती है। यह घटना क्या हुई, हंसमुख मृणाल की हंसी सदा के लिए चली जाती है। घटनाक्रम में तेजी आती है। मृणाल का विवाह होता है, किसी 'अच्छे' परिवार के 'ओहदेदार' लड़के से, जो उम्र में उससे बहुत बड़ा है, और जिसका यह दूसरा विवाह है। मृणाल इस विवाह से खुश नहीं है। वह जानती है, उससे किसी तरह बला छुड़ाई जा रही है। तभी विदाई के मौके पर प्रमोद बिना किसी बात की परवाह किए अपनी मृणाल बुआ के पैरों से लिपट जाता है, उसे जाने नहीं देता। अपनी मां को राक्षस कहता है और पिता से थप्पड़ खाता है। और तब मृणाल उसे नीचे झुककर उठाती है उसकी ठोड़ी पकड़ कर पूछती है - प्रमोद, तू मेरी बात भी नहीं मानेगा? मैं जल्दी आऊंगी..। आंसुओं से भीगा बुआ का चेहरा देख प्रमोद का हठ गल जाता है। 

वास्तव में मृणाल की पिटाई उसके शीला के भाई के प्रेम में पड़ने का पुरस्कार था। उस समय मृणाल के हाव-भाव और व्यवहार को प्रमोद आश्चर्य और कौतूहल के साथ देखता है। वह इस परिवर्तन को समझ नहीं पाता। मृणाल का प्रमोद के प्रति प्यार का रूप बदल गया है। वह उसे उपदेश नहीं देती, उसे छाती से लगाए पार जाने कहां देखने लगती है। अधिक बातें नहीं करती। एकांत उसे उतना बुरा नहीं लगता। शाम को खटोला डाले ऊपर उड़ती चीलों को चुपचाप देखती रहती है। कटी पतंग को आंखों से ओझल हो जाने तक देखती है। खटोले पर पेट के बल लेटकर कोयले से धरती पर लकीरें खींची रहती है। वह चिड़िया बनना चाहती है... लेकिन फिर पिटाई, और विवाह। विवाह के चार दिन बाद वह मायके आती है। उसे देखकर प्रमोद के मन में होता है कि किस तरह वह बुआ के काम आए कि उनका जी हल्का हो। और नहीं तो उनके गले लग कर फूट ही पड़े। उसे खिलौना पकड़ा मृणाल पूछती है - मरना क्या होता है, क्यों रे, तू जानता है? प्रमोद को यह मजाक अच्छा नहीं लगता। वह बुआ के लिए स्वयं मर जाने का हौसला रखता है क्योंकि उनके मरने के बाद वह जी ही नहीं सकता। लेकिन वह देख लेगा कि आखिर बुआ को मारने वाला कौन है। मृणाल शीला के भाई के पास प्रमोद के हाथों एक चिट्ठी भेजती है। प्रमोद को वे बहुत प्यार करते हैं। प्रमोद भी उनसे मिलकर बहुत खुश होता है। जवाब में वे भी चिट्ठी देते हैं, खुली ही चिट्ठी। ऐसे अच्छे आदमी की लिखावट की सुंदरता देखने के लिए पत्र उसने खोला और उसमें 'माय डियर' लिखा हुआ उसे इतना अच्छा लगा कि वह कई दिन तक वैसे ही 'माय डियर' लिखने की कोशिश करता रहा।  लेकिन चिट्ठी का जवाब मृणाल को अवसन्न कर देता है। वह कहती है - अगर शीला के भाई का कोई पैगाम आया तो वह अपनी जान दे देगी। लौटने के एक दिन पहले तक मृणाल मानो एकदम मुरझा-सी जाती है। उसकी निगाहें जैसे कहीं धंसकर रह जाती हैं - 'जैसे सामने उन्हें कुछ नहीं दीखता। सब भाग्य दीखता है और वह भाग्य चीन्हा नहीं जाता।' वह कुछ चाहती है जैसे, लेकिन उसे खुद ही नहीं पता कि क्या। प्रमोद उसका सर दाबता है, कि वह उसे एक दवा का नाम लिखकर शीला के घर भेजती है दवा लाने को। चिट पढ़कर पहले तो शीला के भाई बहुत नाराज हो जाते हैं, फिर मृणाल का हाल जानने को प्रमोद को ले चलने को कहते हैं। प्रमोद कहता है - नहीं, जीजी छत से गिरकर मर जाएंगी। 

कुछ महीनों बाद मृणाल एक नौकर के साथ मायके आती है। उसकी शारीरिक और मानसिक अवस्था ठीक नहीं है। वह आई है और वापस जाने की इच्छा उसकी नहीं है। बातों ही बातों में वह प्रमोद को कहती है, केवल प्रमोद को - 'बेंत खाना मुझे अच्छा नहीं लगता। न यहां अच्छा लगता है, न वहां अच्छा लगता है।' प्रमोद को पता चलता है कि फूफा ने बुआ पर कुछ अभियोग लगाए थे। पिता के साथ लंबे पत्राचार के बाद सुलह की स्थिति बनती है। फूफा वापस मृणाल को ले जाने को आने वाले हैं। मृणाल को उसके पितातुल्य भाई स्त्री धर्म की शिक्षा देते हैं - पत्नी का धर्म है पति है। घर पति-गृह है। उसका धर्म, कर्म और उसका मोक्ष भी वही है। मृणाल जाना नहीं चाहती। वे कारण जानना चाहते हैं लेकिन बताना भी नहीं चाहती। लेकिन आखिरकार मृणाल लौटने की तैयारी करने लगती है, सामान बटोरने-सहेजने लगती है। किताब कोई नहीं ले जाती अपने साथ इस बार, क्योंकि किताब 'उन्हें' अच्छी नहीं लगती। उनसे समय बर्बाद होता है। 

मृणाल के पति सुबह आने वाले हैं उसे लिवा ले जाने, लेकिन शाम में उसकी तबीयत बहुत बिगड़ने लगती है। इसके बारे में किसी को भी बताने से वह प्रमोद को मना कर देती है। उसे जमालगोटा (विरेचक, लेकिन गर्भवती स्त्री के लिए वर्जित औषधि) लाने को कहती है। इसके सेवन के बाद से तो उसकी अवस्था चिंतनीय हो जाती है। प्रमोद पूछता है - यह तुमने क्या किया बुआ? प्रमोद उससे पूछता है, व्यथा से भर कर - अपने तन को क्यों होती हो? बुआ कहती है - मैं नहीं जानती। अच्छा बताओ, तन का क्या करूं?' फिर फूफा आते हैं। उस अहंकारी पुरुष की अवमानना भी अपने ढंग से प्रमोद करता है। बुआ अंतिम बार मायके से विदा होती है। वह घर से ही नहीं, सबके जीवन से निकल जाती है, फिर कभी लौट के नहीं आती। जमालगोटा का असर या कुछ और, मृणाल एक मृत कन्या को जन्म देती है। फिर वह परित्यक्ता बन जाती है। उसके पति उसे शहर के हाशिए पर एक मलिन इलाके की कोठरी में छोड़ जाते हैं। उसे मैके जाने के लिए कहा गया जिसके लिए वह तैयार नहीं हुई, जोर-जबरदस्ती और मारपीट के बाद भी तैयार नहीं हुई। बुआ के बारे में खबरें उड़ती हुई कभी-कभार प्रमोद तक पहुंचतीं। ऐसे ही एक दिन पता लगा कि बुआ पुरानी जगह छोड़ नई जगह आ टिकी है जो कि प्रमोद की यूनिवर्सिटी के करीब पड़ती है। वह एक कोयला व्यापारी के साथ रह रही है, यह भी पता चला। 

प्रमोद आखिर एक दिन मृणाल के पास पहुंचता है, शहर के ऐसे इलाके में जहां सभ्यता का तलछट, उसकी मैल जमा होती है। मृणाल को वह अकल्पनीय स्थान पर दु:सह्य स्थिति में पाता है। वह कमजोर है, और गर्भवती है। प्रमोद ही उसके जीवन का एकमात्र सहारा है (कम से कम भावात्मक)। वही है जिसके समक्ष वह अपने हृदय की बात कह सकती है, और अब तो वह बीस वर्ष का समझदार नौजवान है। वह उसे खुलकर बताती है कि जब पति ने उसे छोड़ा था और वह मरणासन्न थी, तब इसी कोयले के व्यवसायी ने उसकी सहायता की थी, उसका जीवन बचाया था। तो यह जीवन है एक ऋण की तरह है जिसे वह तन देकर चुकाती है। उसके गर्भ में उसी का अंश पल रहा है। कोयला व्यापारी उसके रूप पर मोहित है, आसक्त है। उसके लिए उसने अपना घर-परिवार आज भले छोड़ दिया हो, जल्द ही उसकी रुचि मृणाल में समाप्त हो जाएगी और वह अपने कुटुंब में जा मिलेगा। तब क्या होगा? यह तो भगवान ही जानता है, वही सबको राह दिखाता है। लेकिन प्रमोद को बुआ के मुख से ऐसे शब्द भी सुनने पड़ते हैं - और जो हो, लेकिन मैं वेश्यावृत्ति नहीं करूंगी - तन देने की जरूरत हो सकती है, लेकिन तन देकर पैसा कैसे लिया जा सकता है? प्रमोद सोच में पड़ जाता है - पति का घर छोड़ इस गंदी जगह पर व्यभिचार में डूबी अपनी मृणाल बुआ को लांछित करने की बजाय उसके प्रति और खिंचकर क्यों वह रह गया है!

मृणाल आखिर प्रमोद के साथ कैसे जा सकती थी। परित्यक्ता और ऊपर से गर्भवती स्त्री का मैके तो क्या कहीं भी क्या स्थान कोई हो सकता है? वह अपने पितृकुल को संकट में कैसे डाल सकती है। फिर वही हुआ। मृणाल का सोचा हुआ ही हुआ। मृणाल ने एक कन्या को जन्म दिया। उसके बाद उसके साथ मारपीट करके वह कोयला व्यवसाई उसे छोड़कर चला गया। 

समय गुजरा। इधर प्रमोद के विवाह की बात आगे बढ़ी। लड़की देखने जब वह गया तो एक मास्टरनी जी को बच्चों को पढ़ाते देखा। मास्टरनी जी क्या, वह तो उसकी मृणाल बुआ ही थी। उसे विकलता से प्रमोद खोजता फिरा था, उस कोयले की दुकान वाले की कोठरी से लेकर अस्पतालों में, और कहां-कहां...! और आज उसे इस तरह अनायास पा सका। दोनों उस समय अन्चीन्हे बने रहे। लेकिन उसका पता मालूम करके प्रमोद मृणाल के यहां पहुंच ही जाता है। बुआ बदली हुई दिखाई देती है। वह अकेली है। उसकी आंखों में स्निग्धता है। 'देह इकहरी और वशीभूत। मानो अपने भाग्य से गहरा सौहार्द है...। जो झेला है सब पी गई है। सबका रस बन गया है। खार कोई नहीं है।' मृणाल बेटी को नहीं बचा सकी। उसे प्रमोद और राजनंदिनी का रिश्ता किसी भी कीमत पर चाहिए। प्रमोद को उसके बारे में हरगिज लड़की वालों को कुछ नहीं बताना चाहिए। लेकिन सच कहने का दबाव प्रमोद पर इस कदर हावी होता है कि लड़की वालों के यहां से चलते चलते-चलते वह लड़की के डाक्टर पिता से कह बैठता है - मास्टरनी मेरी बुआ है। डाक्टर साहब से प्रमोद के संबंध जीवनपर्यंत बने रहे, लेकिन वह संबंध विवाह वाला, बनने से रह गया। लड़की की मां बुआ वाली बात स्वीकार न कर सकी, पचा न सकी। मृणाल फिर एक बार स्थान छोड़ने को विवश हुई। कहां गई, प्रमोद को मालूम ना हो सका। मालूम तब हुआ जब मृणाल ने प्रमोद की माता के स्वर्गवास का समाचार सुनकर उसे पत्र लिखा। उस पत्र में अपना पता भी लिखा। पत्र में लिखा - 'मैं जानती हूं तुम आओगे।.. तुम आओगे तो आ जाना लेकिन मुझसे किसी बात की उम्मीद ना करना। जिन लोगों के बीच बसी हूं, वह समाज की जूठन है, और कौन जानता है कि वे जूठन होने के योग्य भी नहीं हैं... मैं किसी भी और बात पर अब जिंदा रहना नहीं चाहती हूं। उनकी बुझती और जगती इंसानियत के भरोसे ही रहना चाहती हूं। दर-दर भटकी हूं और मैंने सीखा है कि दुर्जन लोगों की सद्भावना के सिवा मेरी कुछ और पूंजी नहीं हो सकती।... सबके अभ्यंतर में परमात्मा है और वह सर्वन्तर्यामी है, इससे अभी यहां से टूटकर उखड़ना नहीं चाहती।'

मृणाल वास्तव में ऐसी जगह बसी है जहां चरित्र और नैतिकता कोई विषय ही नहीं है। सच्चरित्रता से यहां आदमी की माप, मूल्य नहीं निर्धारित होता। यहां तो दुर्जनता का ही बोलबाला है, क्योंकि वही सबसे प्रगट सच है। इसी से यहां गुप्त कुछ नहीं, छल की तो कोई बात ही नहीं। यह सभ्य या शिष्ट समाज का एक समांतर समाज है। दोनों के बीच शायद ही कुछ समान है। इस दूसरे, समांतर समाज में टिके रहने की सबसे बड़ी शर्त है अंदर और बाहर एक रहना, द्वैध यहां नहीं चल सकता।

जिस स्थान का, जिस समाज का मृणाल बुआ ने अपने पत्र में इतना बखान किया था, वहां उससे मिलने प्रमोद पहुंचता है। उस जगह जहां कि नगर की सड़ांध होती है। वहां बुआ की जो अवस्था होती है, वह देख कर उसे गहरी पीड़ा होती है। वह उसे फिर साथ चलने को कहता है - बुढ़ापे में ही तुम्हें आराम नहीं दे सकूंगा तो कब दूंगा। मृणाल कहती है कि जिन लोगों के बीच वह है, उनका उस पर बहुत उपकार है, उसे उन सब को भी अपने घर उसी प्रकार ले चलना होगा जिस प्रकार युधिष्ठिर कुत्ते को स्वर्ग लेकर गए थे। कुत्ता साक्षात धर्म था और उससे अपने साथियों की तुलना वह अनायास ही नहीं करती। वह जानती है और समझती है कि यह एकदम गए बीते लोग ही मनुष्यता की कसौटी बनाते हैं। तो आखिर प्रमोद फिर एक बार मृणाल बुआ को साथ लाने में नाकामयाब रहता है और नाराज होकर चला जाता है। जमकर वकालत करता है फिर एक दिन जज बनता है।


इस बात के सत्रह साल बाद उसे मृणाल बुआ के मरने की खबर मिलती है। प्रमोद संताप और ग्लानि में डूबा है। ग्लानी कि कैसे वह आखिर इतने सालों से बुआ की ओर से मुंह फेरे रह सका। क्यों आखिर बुआ की मांग उससे पूरी न हुई? किस अमानुषिकता के साथ सत्रह वर्ष बिना बुआ को देखे काट गया। वह बुआ कि जिन्होंने कुछ भी किया तो बस उसे प्रेम ही किया, उसे दिया ही दिया, लिया कभी कुछ नहीं। मृणाल बुआ जिस व्यवस्था, जिस अमानुषिक और बर्बर व्यवस्था का शिकार हुई, उसके विरुद्ध उनके पक्ष में न्याय करने में असमर्थ मानकर, बल्कि उसके सबसे प्रामाणिक प्रतिनिधि के नाते उनकी दुरावस्था, दमन और दलन में अपनी हिस्सेदारी जानकर जजी से त्यागपत्र दे देता है। प्रमोद यह संकल्प लेता है कि शेष जीवन वह उतनी ही स्वल्पता के साथ बिताएगा जितना कि जीवित रहने के लिए अनिवार्य हो, और हरिद्वार चला जाता है। उपन्यास के आरंभ में इसी जज प्रमोद यानी पूर्व चीफ जस्टिस एम. दयाल के मरणोपरांत उनके असबाब में से एक पांडुलिपि मिलती है जिस पर उनके हस्ताक्षर हैं। उसी अंग्रेजी पांडुलिपि का उल्था यह उपन्यास 'त्यागपत्र' है।


मृणाल की कहानी एक बच्ची के स्त्री बनने की या स्त्री में रूपांतरित होने की भी कथा है। इसमें बेंत की, यानी बल की एक महत्वपूर्ण, बल्कि निर्णायक भूमिका है। मृणाल के बचपन और किशोरावस्था के प्रसंग बड़े स्वाभाविक रूप से इस प्रक्रिया या कि परिघटना को दर्शाते हैं। मृणाल की कहानी पुरुष वर्चस्व वाले समाज में चरित्र और नैतिकता पर प्रश्न उठाती है और उनका मूल्यांकन उस जगह पर रहकर उन लोगों के बीच खड़ी होकर करती है जो समाज की जूठन है। इस प्रकार इन प्रश्नों को एक प्रकार से वैधता मिलती है, ये व्यवस्था पर कोई प्रतिक्रिया मात्र बनकर नहीं रह जाते।


'त्यागपत्र' 1937 में छपा था। देश में उस समय उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष चल रहा था। हर भाषा में इस संघर्ष को स्वर मिल रहा था। और इसी समय जैनेंद्र, जो कि खुद स्वतंत्रता आंदोलन में जेल जा चुके थे, जो विशेषकर गांधीजी के सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा जैसी अहिंसक युक्तियों के कायल थे, ने 'त्यागपत्र' लिखा। स्त्रियां बढ़-चढ़कर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले रही थीं।  वे सत्याग्रही भी थीं और क्रांतिकारी भी। जहां एक ओर यह सब हो रहा था, वहीं मानो एक युगांतरकारी सृजनात्मक उद्यम से जैनेंद्र ने पुरुष-सत्ता - उसके मूल्यों एवं संरचनाओं के खिलाफ एक सत्याग्रही स्त्री चरित्र खड़ा कर दिया - मृणाल!


पुरुष सत्ता के विरुद्ध मृणाल का आत्म-दलन वास्तव में सत्याग्रह का ही एक और रूप या संस्करण है। मृणाल सत्य पथ से कभी नहीं डिगती और जीवन भर इसकी कीमत चुकाती

है। शीला के डॉक्टर भाई का उसे एक पत्र मिलता है जिसमें उसने लिखा है कि वह अविवाहित है और आगे भी अविवाहित रहेगा। मृणाल विवाहित है और वह उसके सुख की कामना करता है। फिर भी अगर कभी अगर उसे किसी भी बात की दरकार हो तो वह हमेशा उसके लिए प्रस्तुत रहेगा। एक पतिव्रता स्त्री होने के नाते वह यह बात पति से नहीं छुपा पाती। सच कहने का उसे यह पुरस्कार मिलता है कि पति उसे अपने घर से और जीवन से बाहर कर देता है। नैतिक होने का अर्थ सच्चा होना होता है। मृणाल सच्ची है - अपने परपीड़क पति के प्रति भी, इसी से अपने प्रेम प्रसंग की बात भी उस पर प्रगट कर देती है और निष्कासन पाती है। सच्चा नहीं हुआ जा सकता। एक स्त्री के लिए सच्चा व्यक्ति होना मानो कहीं अधिक जोखिम से भरा है।

मृणाल का चरित्र देह की शुचिता और आत्मा की पवित्रता का द्वंद्व भी सामने लेकर आता है। आत्मा की पवित्रता के आगे मृणाल के सामने देह की शुचिता की कोई कीमत नहीं। मैके आई बीमार मृणाल खुद को और बीमार बनाती है और प्रमोद के टोकने पर पूछती है - बताओ, तन का क्या करूं? यही तन आगे उसके द्वारा प्रतिदान का माध्यम बन जाता है - आत्मा की मुक्ति के रास्ते की रुकावट देह को क्यों बनने देना चाहिए? आखिर तो इसे गलना है, जलना है, तो ठीक है, तन मिट्टी ही तो है आखिर। यहां मृणाल देह की शुचिता पर अवलंबित सामाजिक नैतिकता को चुनौती देती है। ऐसी उस समय कोई दूसरी स्त्री पात्र नजर नहीं आती जो विवाहित होते हुए पर-पुरुष से गर्भवती होती है, बल्कि शिशु को जन्म भी देती है। यह जैनेंद्र ने सौ साल बाद का, भविष्य का स्त्री पात्र खड़ा किया है। मृणाल के आत्मदान के आगे आधुनिक स्त्री-विमर्श के सारे प्रतीक निस्तेज हैं। मृणाल कहती है - दान स्त्री का धर्म है, देते जाने में ही स्त्री-जीवन की सार्थकता है। अपने आप को देकर, चुकाकर मृणाल जो प्रतिमान लगभग सौ साल पहले रचती है, वह लेने को व्यग्र और आतुर कोई वैमर्शिक पात्र आज तक नहीं खड़ा कर पाया। इन दोनों स्थितियों में ऐसा ही अंतर है जैसा कि प्राण देने की तैयारी और प्राण लेने की उद्धतता के बीच है। मृणाल समाज में तोड़फोड़ नहीं चाहती, क्योंकि जब समाज ही नहीं रहेगा तब हम सब कहां रहेंगे? लेकिन अपने को गला कर, जलाकर, वह सोए हुए जड़ समाज को जगाना चाहती है, संवेदित करना चाहती है। जो कोई उसके जीवन को नष्ट करने के लिए जिम्मेदार हैं, उनके प्रति भी वह सच्ची और करुणापूरित है, चाहे वह उसकी भाभी हो, पति हो, या कोयला व्यापारी।

कष्ट, निरादर और निष्कासन झेलती लेकिन अपने लिए स्वाधीनता का भी वृत्त रचती मृणाल का व्यक्तित्व एक सजग चिंतक के रूप में ढलता जाता है, जो अपने ही अनुभवों को लेकर तत्व-मीमांसा में उलझती है, जगज्जीवन के उलझे डोर सुलझाने की कोशिश करती है, और सर्वन्तर्यामी को कर्त्ता और कारण मानकर अध्यात्म की ओर मुड़ती जाती है। जिनके साथ समाज भेद करता है, मृणाल उन्हीं के साथ अभेद स्थापित करती है, उन्हीं की होकर रहती है। यह महा-मूल्य रचते हुए मृणाल कथाकाश में ध्रुव तारे की तरह जगमगा रही है।

मृणाल को एक पात्र के रूप में जो ऊंचाई मिली है, उसमें सबसे बड़ा योगदान प्रमोद का है। जैनेंद्र जी ने प्रमोद के रूप में ऐसा स्त्री-संवेदी पात्र खड़ा किया है जो जज होकर भी अपनी बुआ की नजरों से दुनिया को देखता है, और न्याय की तराजू में अपना पलड़ा हल्का पाकर जजी छोड़कर विरक्त जीवन बिताने लगता है। यह दोनों ही वास्तव में विद्रोही पात्र हैं और अपने-अपने उद्यम में सफल हैं, और अनासक्ति और आत्म निग्रह इन दोनों के अस्त्र हैं, युक्तियां हैं! (कथादेश,मार्च 2023 में प्रकाशित.)

                           -  शिवदयाल

ईमेल : sheodayallekhan@gmail.com


Wednesday 15 March 2023

कहानी
           चंदन खुशबू की दुकान
                                                                                             
                                                                                                                                     - शिवदयाल

आखिरकार सब कहीं से थककर मैंने एक दुकान खोल ली। पिता ने इसके लिए मकान के सामने की जमीन पर दस बटा आठ का एक कामचला कमरा खड़ा कर दिया। उसमें दरवाजे की जगह शटर लगवा दिया। पहले मैंने सोचा कि शायद किराए के लिए दुकान बनवा रहे हों, गाड़ी के लिए गैराज तो बनवा नहीं सकते। लेकिन नहीं, उनकी गरज तो कुछ और थी। एक दिन उन्होंने मुझे बुलवाया। काम की हड़बड़ी थी, फिर भी गया।
‘‘अब तक तुम कितनी कम्पनियाँ बदल चुके हो?’’ हठात् यह प्रश्न सुनकर मैं तो गिनती ही भूल गया। फिर सोचा, बूढ़े भी पता नहीं क्या-क्या लेकर बैठ जाते हैं।
‘‘यही कोई सात-आठ ...’’
‘‘अभी किस कम्पनी में हो?’’
लो, यह तो पकड़े गए। दो महीने से एक तरह से खाली ही था।
‘‘अच्छा छोड़ो, कितना कमा लेते हो?’’
कमजोरी पकड़े जाने पर ताकत दिखाने का हौसला भी बनता है। मैं कुछ तन कर बोला -
‘‘ठीक ही ठाक चल रहा है। नरम-गरम सब खुद ही तो झेल रहा हूँ। कभी आपसे कुछ कहा ?’’
बच्चा था तो कभी-कभी बैलून फुलाते हुए बैलून की हवा वापस मुँह में चली आती थी।
‘‘बकवास बंद करो। बीवी की कमाई पर अकड़ दिखाते हो, वह भी अपने बाप को। दो-दो बच्चे हो गए और अभी भी मिजाज स्कूली लौंडों वाला है.....’’
वे आगे भी कुछ बुदबुदाए, जरूर मुझे गाली दी होगी। वे कभी-कभी हम भाइयों को गालियाँ दिया करते थे।
‘‘मुझे किसलिए बुलाया आपने?’’
‘‘यह जो दुकान है, तैयार हो रही है, इसे संभालो अब। आवारागर्दी से बाज आओ। इसमें स्टेशनरी लगाओ, एक फोटो कॉपियर भी रखो। बाद में चाहो तो पी.सी.ओ. भी लगा लेना। दवाइयाँ बहुत बेच चुके, और भी जाने क्या-क्या बेचा होगा !’’
शाम में घर लौटा खाली हाथ। कमीशन के चेक की प्रत्याशा थी, नहीं मिला। बड़े बच्चे पर झुँझलाया, छोटे को झिड़की दी। पत्नी ने देखा तो लक्षणा-व्यंजना वाली अपनी शैली में सवाल दागा - ‘‘यह मुँह फुलाए कहाँ से चले आ रहे हो?’’
‘‘तुमने यह क्यों नहीं पूछा कि मुँह उठाए कहाँ से चले आ रहे हो?’’ मैंने सवाल वापस किया।
‘‘छिः, मैं ऐसा कैसे पूछती? वैसे भी तुम्हारा चेहरा तो बिल्कुल गिरा हुआ है!'' वह हँसकर बोली तो मैं भी कुछ हल्का हुआ।
‘‘अब बोलो भी, बात क्या है?’’ वह चाय लिए आ गई।
‘‘बात क्या होगी। अब तो अपने दुःख दूर होने वाले हैं।’’
‘‘सच? वह कैसे?’’
‘‘मेरे बाप से पूछो! मेरे लिए दुकान खोल रहे हैं।’’
‘‘दुकान खोल रहे हैं? कहाँ, किस मार्केट में?’’ उसकी हर्ष भरी उत्सुकता देख मुझे बहुत चिढ़ हुई।
‘‘किस मार्केट में ! अरे यह जो फाटक के बगल में कमरा बन रहा है, वहीं अपनी दुकान लगेगी। गद्दी पर बैठकर अब सौदा-सामान बेचने के दिन आए!’’
‘‘तो क्या! पहले भी तो अब तक तुम सामान ही बेचते रहे हो! ठीक तो है, अब घर बैठे सामान बेचा करो। वाह! अच्छा आइडिया है। इसी से घर में बूढ़े-बुजुर्गों का साया जरूर ही होना चाहिए। हमेशा संतान के सुख की ही कामना करते हैं। देखो, बाबूजी ने हमारे लिए कितनी अच्छी बात सोची।’’
‘‘अरे, मेरे पास मार्केटिंग का डिप्लोमा है यार! वह क्या इसीलिए है कि मैं घर में दुकान खोलकर बैठ जाऊँ ?’’
‘‘तो अब तक कौन-सा तीर मार लिया, बताओ? अपनी दुकान से तुम्हें क्या परेशानी है आखिर? दूसरे दुकानों की खाक छानने से तो यह लाख गुना बेहतर है। हाँ, तुम इतना करना कि राशन-तेल लेकर न बैठ जाना?’’
‘‘क्यों? उसमें तुम्हें क्या परेशानी है, जरा सुनुँ तो?’’
‘‘बू आएगी! बस, मुझे अच्छा नहीं लगेगा! तुम्हारे बदन से तेल-मसालों की गंध् मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती।’’ यह बात उसने इस अदा से शर्माते हुए कही कि मेरा दिल जल गया।
‘‘तो ऐसा करता हूँ। यह दुकान मैं तुम्हारे ही नाम पर खोल लेता हूँ - खुशबू जेनरल स्टोर्स। ठीक न?’’
‘‘नहीं जी, दुकान तो अपनी स्वर्गीया माताजी के नाम पर ही रखो, बरकत होगी।’’ वह साफ बच निकली।
आखिर वही होकर रहा। मेरे घर में ही दुकान खुल गई - शांति स्टोर्स - स्टेशनरी एवं फोटो स्टेट के लिए पधारें! बड़ी झिझक के साथ मैंने ‘गद्दी’ संभाली - एक छोटी-सी खूबसूरत, गद्देदार रिवॉल्विंग  चेयर। निहायत अवास्तविक प्रतीत होने वाली वास्तविकता से साक्षात! पूजा-पाठ, धूप-बत्ती के बाद ‘गद्दी’ पर बैठा तो दोनों बच्चों ने मिलकर कितने ही चक्कर खिलाए। उनकी माँ खिल-खिल कर हँसती रही और उनके बाबा और अन्य लोग मुस्कराते खड़े तमाशा देखते रहे। भीड़ छँटी तो खुशबू रानी ने पास आकर कुर्सी के दोनों हत्थों पर झुकते हुए कहा - ‘‘यह तो बड़ा अच्छा किया जी, रिवॉल्विंग चेयर ले आए। तुम्हें तो घूमने की आदत रही है न? अब बैठे-बैठे चक्कर खाते रहना।’’
वैसे खुशबू ने दुकान जमाने में खूब मदद की। सबसे पहले तो उसने एक छोटी-सी बेंत की छड़ी में पुराना कपड़ा बाँध कर ‘झाड़न’ बनाया, मुझे धूल झाड़ने की तरकीब भी बताई। उसने खुद ही दो छोटे बोर्ड भी बनाए। एक पर लिखा - ‘आज नगद, कल उधर’ और दूसरे पर - ‘उधर माँग कर शर्मिन्दा न करें।’ मैंने आपत्ति की और मुँह बिचकाया तो उसने मुझे लगभग डाँटते हुए समझाया - उधार वालों से बचकर रहना, उन पर कोई रियायत नहीं करना। एक बार जो तुमने छूट दी तो समझना - यू आर फिनिश्ड! अपना से अपना आदमी भी उधर माँगे तो कहो - क्या बताएँ, हम पर तो खुद यह पूरी दुकान ही उधर चढ़ी है। ‘‘मुझे ताज्जुब हुआ। खुशबू को दुकानदारी का तजुर्बा कब हुआ आखिर? पूछने पर उसने बताया, उसके चचेरे भाई ने अकेले तीन-तीन दुकानों का बेड़ा गर्क किया था! बहुत खूब!
खैर, तो दुकान शुरू हुई तो उसके साथ ही कई चीजें भी शुरू हो गईं, सुबह नौ बजे दुकान खोलता था, सवा नौ बजते-बजते नींबू-मिर्च वाला हाजिर। तीन रुपए में धगे में गुँधा  हुआ कागजी नींबू और साथ में दो-चार हरी मिर्च। बुरी नजर से बचाने का टोटका। दाम तीन रुपया लेकिन उसे टाँगने का झंझट उसका। लगभग उसी समय ब्रेड वाला आकर काउंटर पर ब्रेड सजा जाता। दस बजते-बजते खुशबू पाउडर-परफ्यूम  की संयुक्त खुशबू के साथ दुकान में हाजिर। आते ही दुकान की सजी हुई चीजों को भी सजाती, फिर हिदायतें भी देती, खासकर उधर के मामले में काफी सख्त ! ऑफिस जाने के पहले तीन-चार बार कहती - तो चलती हूँ जी, देखना ... भूख लगे तो कुछ खा लेना। .... तो चलती हूँ जी, जी छोटा न करना ..., तो चलती हूँ जी, शुरू में थोड़ा मंदा रहता ही है ... तो चलती हूँ जी, देखना ....। इस बीच कोई ग्राहक आ जाए तो उत्साह से उसे खुद ही संभालती।
पी.एफ. से लोन लेकर उसने फोटो कॉपियर भी लगवा दिया था, उसे लाड़ से एक बार जरूर छू लेती। साढ़े दस बजते-बजते वह आखिरकार निकल जाती। उसे जाने देने का मन नहीं करता। कुछ दूर जाकर वह एक बार पीछे मुड़कर देखती, पिफर तेज कदमों से मेन रोड की ओर निकल जाती।
खुशबू के जाते ही दुकान को लेकर मैं उधेड़बुन में खोन को होता कि कभी पता पूछने वाले, तो कभी एजेन्सी वाले, कभी चंदा माँगने वाले तो कभी पास-पड़ोस के कोई सज्जन टोह लेने पहुँच जाते। दुकान से सबका कोई न कोई सरोकार था। सूर्यास्त के बाद दो व्यक्तियों का आगमन एकदम सुनिश्चित था। पहला, एक थाली में दीपक की लौ को हथेली से ढाँपे पास की अतिक्रमित जमीन पर बनाये गए छोटे से मंदिर का पुजारी, और दूसरा व्यक्ति होता था एक पाराबैंकिंग कम्पनी का कलेक्टर जो रोज रेकरिंग डिपोजिट के बीस रुपए ले जाता था और रसीद मर्त्तबानों के बीच फँसा देता था। उन दोनों से शायद ही कोई संवाद होता। एक धर्म   खाते का आदमी और दूसरा बचत खाते का। नागा होने का सवाल ही नहीं था।
यह तो रही दुकान की बात। दुकान के इतर भी मेरी जिम्मेदारियों और किरदार में इजाफा हुआ। मैं अब घर के लिए चौबीसों घण्टे उपलब्ध था। बच्चों को बस स्टॉप से घर ले जाने की जिम्मेदारी अब मेरी थी। घर में बिजली खराब है, चंदन को बुलाओ। पानी का मोटर खराब है, चंदन ठीक कराएगा। टेलीफोन गड़बड़ है, चंदन को टेलीफोन ऑफिस भेज दो। बिल जमा करना है, चंदन को दे दो न! बच्चों की फीस देनी है, चंदन है न! दवा-दारू चंदन ले आएगा। दुकान है तो पिफर चंदन है, चंदन है तो पिफर क्या गम है। ये व्यस्तताएँ उन दो घंटों की थीं जब दुकान बंद रहती थी। घर में बूढ़े बाप के अलावा दो कामकाजी भाई थे, भाभियाँ थी, उनके सयाने होते बच्चे थे, आवाजों का पीछा करता कमरा-दर-कमरा लुढ़कता एक नौकर था। काम की कोई कमी नहीं थी।
दिन खाली था - दुकान की ही तरह। मैं ऊँघता हुआ ‘बिजनेस वर्ल्ड’ देख रहा था। अभी बच्चों को लाने का समय नहीं हुआ था। आवाज आई -
‘‘चंदन तुम? कैसे हो? क्या हाल है भाई?’’ मैंने नजर उठाई तो सामने कमलेश था - पैंट-शर्ट और टाई में, माथे का पसीना पोंछता, मुस्कराता।
‘‘ओह तुम! कैसे हो कमलेश? यह क्या हुलिया बना रखा है? इतनी गर्मी में टाई क्यों लगा रखी है यार?’’
‘‘क्या करें यार, मजबूरी है। टाई लगाकर ही तो टारगेट को पीछा करना है। तुम्हारा धंधा  कैसा चल रहा है - वह सफाई मशीन वाला?’’
‘‘यार, उसके बाद तो दो और कम्पनियाँ छोड़ चुका हूँ, तुम अभी वहीं हो।’’
‘‘चलो, तुम्हारा क्या है, आजाद पंछी हो। वाइफ कमाती है, तुम्हे किसकी परवाह! ... लेकिन यार, यह दुकानदार कहाँ गया? दुकानवाले बड़े रईस हो गए हैं ...’’
‘‘क्या चाहिए तुम्हें?’’
‘‘कुछ रजिस्टर चाहिएँ और ... यह कुछ जीरॉक्स कॉपी निकलवानी है ...’’
‘‘हो जाएगा, लाओ ...’’ मैं उठा, उसे निपटाने में लगा।
‘‘यार, दुकानदार को ही बुला लो, तुम क्यों जहमत उठाते हो। ... वैसे दुकान अच्छी खोली है, अच्छा किराया मिल जाता होगा, है न?’’
मैंने उसकी बातों पर ध्यान न देकर उसे रजिस्टर और जीरॉक्स कॉपियाँ पकड़ाईं और हिसाब जोड़कर बताया।
‘‘लेकिन दुकानदार ... ’’
‘‘तुम्हें काम से मतलब है या दुकानदार से?’’
‘‘मतलब तो काम से ही है ... ’’
‘‘यह दुकान मेरी ही है यार! अब तो निश्चित हो जाओ।’’
‘‘अरे वाह! बहुत अच्छे! लेकिन निश्चित कैसे रहूँ, तुमने कोई कनसेशन तो किया नहीं?’’ वह हँसा, मैंने उसे दो रुपए दराज से निकालकर और लौटाए।
‘‘अब तो खुश हो?’’
‘‘अरे, मैंने तो यूँ ही कहा!’’ वह हँसा।
‘‘लेकिन यार, उड़ती चिड़िया पिंजरे में बंद हुई तो कैसे?’’
‘‘कुछ नहीं, दाल-रोटी का सब चक्कर है यार?’’
‘‘ताज्जुब है!’’
‘‘ताज्जुब की क्या बात है?’’
‘‘यह काम तुम्हारी पर्सेनलिटी को सूट नहीं करता। देखो, तुम अभी भी कितने हैण्डसम हो। तुम्हें तो मार्केटिंग टाइकून होना था चंदन। यह सब तो हम जैसे ... ’’
‘‘तुम इतना बोलना कबसे सीख गए भाई? आओ, अंदर आ जाओ, कुछ देर बातें करते हैं। मैंने उसे बीच में रोककर कहा। वह अंदर आकर छोटे स्टूल पर बैठ गया।
‘‘सुनो, अगर मैं वाकई हैण्डसम दिखता हूँ तो मुझे फिल्मों में होना चाहिए था, मार्केट में नहीं। वैसे भी मैं एक तरह से इस लाइन में फेल ही हो चुका हूँ। बात कहीं बन ही न सकी।’’ मैं उदास हो गया।
‘‘सीनियर्स तुम्हारे जल जाते होंगे तुमें देखकर और क्या ! लेकिन हिम्मत रखो यार, अभी बहुत मौके आएँगे। वैसे जगह तो हमारे यहाँ भी खाली है ....’’ वह उठने को हुआ तो मैंने उसका खूबसूरत ब्रीफकेस देखा। ऐसा ब्रीफकेस मुझे तो कभी नसीब नहीं हुआ आठ साल की मार्केटिंग लाइफ में।
‘‘यह भी कम्पनी ने ... ’’
‘‘हाँ, और क्या!’’ उसने मुस्कराकर हाथ मिलाया और चला गया।
उसके जाते ही मुझे अपनी दुकान कोई परायी-सी चीज महसूस हुई। स्टुल पर पैर फैलाकर मैंने सिर अपनी कुर्सी पर टिका लिया। सामने कैबिनेट के शीशे में अंदर के सामानों के साथ-साथ मेरी अपनी छवि भी प्रतिम्बित हो रही थी, जैसे एक कोलाज बन रहा था। मैं दृष्टि को अपनी ही छवि पर केन्द्रित करने की कोशिश करता रहा।
शाम में खुशबू लौटी। चाय-नाश्ता लिए दुकान में ही चली आई, हमेशा की तरह। मैं अनमना था, उसने भाँपा।
‘‘क्योंजी, आज कोई अच्छी शक्ल देखने को नहीं मिली क्या?’’
‘‘हुँह, यहाँ ऐसा रुखा-सूखा दिन गुजरता है?’’
‘‘मामला ऐसा रूखा-सुखा है तो यह मलाई कैसे निकली आ रही है?’’ उसने मेरी छोटी-सी तोंद में अंगुली घुसा दी। मुझे गुदगुदी हुई और चाय छलककर पतलून भिंगो गई। मैं बिगड़ा लेकिन खुशबू हँसती रही - ‘‘मैंने ऐसा जोर से तो कुछ नहीं किया था, क्यों दुखती रग थी क्या जी?’’
‘‘तुम्हीं न उसे मलाई समझ रही हो। और कुछ दिन यहाँ बिठाए रखा तो हलवाई नजर आऊँगा, फिर समझना ...’’
‘‘मन नहीं लगता न? लेकिन यह सब मन लगाने के लिए तो है नहीं, मजबूरी है न! बच्चे बड़े हो रहे हैं...’’ खुशबू कुछ गंभीर हो आई, अचानक ,और दूसरी चाय लाने चली गई।
रात को बच्चों को सुलाते हुए खुशबू बोली - ‘‘एजी, सचमुच, दुकान में बैठे-बैठे तुम्हारा ‘डैश’ जैसे खत्म हो रहा है। न हो तो उसे किसी और को दे दो, तुम वही करो जो तुम्हें अच्छा लगे।’’
‘‘क्यों भई, तोंदू चंदन पसंद नहीं आ रहा क्या? कल से वर्जिश शुरू कर देता हूँ जी,फ़िर देखना।’’ मुझे खुशबू का गुरु-गम्भीर अंदाज पंसद नहीं था। लेकिन वह ठहरी नहीं, कहती गई -
‘‘नहीं-नहीं, ऐसे मन मारकर बैठे रहते हो, मुझे क्या अच्छा लगता है? आदमी काम वही करे जो मन को भाए। मैं भी कहाँ बाबूजी की बातों में आ गई। उसे किसी को दे दो। अब और कुछ नहीं ..., जो होगा वह देखा जाएगा।’’
‘‘ओह खुशबू, तुम तो खामख्वाह अभी सोते समय दुकान लेकर बैठ गई। इस पर आराम से सोचेंगे न!’’
सुबह-सुबह बच्चों को स्कूल बस तक छोड़कर जब लौटने लगा तो रात की बात याद आई। मन में कुछ हौसला जगा। कमलेश का ध्यान आया।
कदम उसके घर की ओर बढ़ चले। रास्ते में दो एक मॉर्निंग वाकर मिले। मेरा नहीं, दुकान का हाल पूछा और मुस्कराते आगे बढ़ गए।
कमलेश घर पर नहीं था। उसकी पत्नी ने बताया।
‘‘क्यों भाभी, रात वह कहीं और गुजारता है क्या? वरना इतनी सुबह कोई घर में न मिले?’’
वह बहुत लजाईं, फ़िर धीरे -धीरे बोलीं - ‘‘क्या बताएँ भाईसाहब, ऐसे धंधे  में फँस गए हैं कि हम सबका जीना हराम हो गया है। ठीक से सोते तक नहीं। रात-दिन टारगेट-टारगेट! नींद में भी टारगेट।’’
मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा - ‘‘तो कुछ पता चला कि टारगेट है या मारग्रेट, और रहती कहाँ है? पकड़िये उसे जाकर और चार चप्पलें जमाइए। पति हाथ से निकल गया तो क्या कीजिएगा?’’ मैं हँसकर वापसी के लिए मुड़ा तो वे आगे आ गईं। मेरी हँसी गायब हो गई। उनकी आँखों में आँसू थे। यह लो, यह क्या हुआ भाई, मैंने ऐसा क्या कह दिया। आखिर अपने दोस्त की बीवी को कोई बहन जानकर तो बात नहीं करता।
‘‘भाभी, क्या हुआ? माफ कीजिए अगर कुछ बोल गया होऊँ । मैं तो वैसे मजाक ...’’
‘‘क्या कहते हैं भाईसाहब, मैं क्या इतना नहीं समझती? लेकिन आप जरा घड़ी भर को बैठ जाइए।’’
मुझे बैठना ही पड़ा। वे उधर  से चाय का पानी चढ़ा आईं। तश्तरी में बिस्कुट लिए सामने बैठीं।
‘‘उन्हें यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगेगा, मुझ पर बहुत बिगड़ेंगे लेकिन आपको बता ही देती हूँ।’’
‘‘क्या हुआ? ऐसी क्या बात हो गई भाभी?’’ मैं घबराया।
‘‘इनकी तो जेल जाने की नौबत है भाईसाहब!’’ उन्होंने आँचल मुँह पर रख लिया।
‘‘टारगेट पूरा करने के चक्कर में किसी से पचास हजार उधर ले लिया। जिस टारगेट के लिए यह सब किया, वह भी नहीं मिला। इसके पहले एक लाख कर्ज लिया था, अभी उसी की अदायगी बाकी थी। पिछले छह महीने से उसकी किश्तें बंद हैं। उधर से नोटिस आ गई है कि पंद्रह दिन के अंदर पैसे चुकाओ नहीं तो धोखधड़ी का मुकदमा चलेगा। उधर  यह पचास हजार वाली पार्टी बच्चे को उठवाने की ध्मकी दे रही है। हमारा पागलों-सा हाल है। ये बिचारे कहाँ-कहाँ नहीं गए, लेकिन इतना पैसा आए कहाँ से? कौन इस जमाने में इतनी मदद कर सकता है, ... फिर  भी ये कोशिश कर रहे हैं, लगे रहते हैं दिन-रात। दो महीने से बच्चे की फीस नहीं दे पाए। यह तो हाल है। हमारी तो जिन्दगी खराब हो गई भाईसाहब!’’ उन्होंने आँखें पोछीं।
‘‘यह तो बुरा हुआ। कमलेश आए तो उसे बताइएगा। मैं चलता हूँ भाभी ...’’
‘‘भाईसाहब, चाय तो पीते जाइए ... ’’
‘‘नहीं, फिर  कभी ... ’’
घर आया। नहा-धेकर दुकान खोली। विलम्ब के कारण कुछ नियमित ग्राहकों के उलाहने सुने। नींबू-मिर्च वाला दो बार लौट चुका था, उसने भी खींसें निपोरी।
जरा-सा खाली हुआ कि खुशबू आ पहुँची। उससे तो अब तक कोई बातचीत ही न हो सकी थी।
‘‘क्योंजी, कहाँ घूम आए?’’
‘‘यूँ ही, कमलेश के यहाँ गया था।’’
‘‘तुम कह रहे थे कि उनके यहाँ जगह खाली है, तुमने बात चलाई?’’
‘‘वह मिला ही नहीं!’’
‘‘अच्छा, पिफर मिल लेना। देखो न, मेरी तबीयत अच्छी नहीं लग रही। बुखार जैसा लग रहा है।’’
‘‘तो आज मत जाओ, आराम कर लो।’’
‘‘नहीं जाऊँ ? कैसे नहीं जाउफँ? जरूरी काम है जी।’’ लेकिन देखो, तुम कमलेशजी से मिल जरूर लेना, नहीं हो तो लौटते में उनके ऑपिफस ही चले जाओ।’’
‘‘अच्छा-अच्छा!’’
पिफर खुशबू की वही रोज बाली हिदायतें - ‘‘खाना समय से खा लेना ... जी छोटा न करना ...’’
मैं दुकान में बैठा ‘आउट ऑफ स्टॉक’’ सामानों की लिस्ट बना रहा था कि कमलेश आया। सिर पर हेलमेट, गले में टाई, हाथ में ब्रीफकेस। मैंने उसे अंदर बुला लिया। वह चुपचाप मेरे सामने बैठ गया। निचुड़े हुए चेहरे को तर करता माथे का पसीना।
‘‘यार, अपनी गर्दन तो ढीली कर लो।’’
‘‘फँसी तो हुई है गर्दन, तुम्हें तो पता ही हो गया।’’ उसने गिरी हुई आवाज में कहा और टाई की गाँठ ढीली कर ली।
‘‘लेकिन देखो, मेरा यह कुछ स्पेशल केस है। इसके बिना पर तुम कम्पनी के बारे में अपनी राय मत बना लेना। मैं तो चाहता हूँ कि तुम आ जाओ, यहाँ बहुत आगे तक निकल जाओगे।’’
उसकी बात सुनकर मुझे बहुत हैरानी हुई।
‘‘तुम यार, अपनी कम्पनी के बड़े लॉयल आदमी हो। कम्पनी को तुम पर फख्र करना चाहिए। तुम्हारा कमिटमेंट कमाल का है।’’
उसने जैसे मेरी बातों पर ध्यान नहीं दिया। वह बैचेन दिखता था। उसे कोई जवाब न दे सका। सुबह की बात याद आई। कुछ पल दुविधा  रही, फिर  मेरे मुख से निकला -
‘‘तुम्हें पैसे की जरूरत है। दस हजार से कुछ बात बनेगी?’’ उसने एकदम ऐसे अविश्वास से मुझे देखा कि क्या कहुँ। उसकी जरूरत बड़ी थी, मेरा ऑफर हल्का। संकोच में घिरा मैं।
‘‘तुम इतना सोचते हो मेरे बारे में चंदन? इतना तो मेरे घरवालों ने भी नहीं सोचा यार !’’ उसका गला भर आया। मैं फौरन उठ गया- ‘‘नहीं-नहीं, ऐसा नहीं सोचते। सबकी मजबूरियाँ है।’’
दुकान बंद कर उसके साथ ही निकला। एटीएम काउंटर से पैसे निकालकर उसके हाथ में दे दिए।
‘‘मैं कोई वादा नहीं कर सकता ...’’
‘‘कोई बात नहीं। चिंता नहीं करो, सब ठीक हो जाएगा।’’
‘‘तुम मेरे साथ चल नहीं रहे? चले चलो, अभी बॉस होंगे।’’
‘‘अभी तो बच्चों को बस स्टॉप से ले आना है। बाद में देखूँगा। तुम अब जाओ।’’ मैंने उससे हाथ मिलाया तो वह फिर  भावुक हो उठा।
लौटते हुए अकाउंट्स डिटेल वाली स्लिप देखी। बैलेंस बचा था µ पाँच हजार तीन सौ सत्तर रुपये। बहुत निराशा हुई।
बच्चों को लेकर घर पहुँचा तो बच्चे बिस्तर पर लेटी माँ से चिपट गए। उनके लिए यह अप्रत्याशित सुख था कि इस समय माँ घर में हो। मेरा मन भी खिला लेकिन मैं आश्वस्त नहीं था। खुशबू लेटे-लेटे फोन पर बात कर रही थी।
‘‘हाँ, घर पर हूँ। बुखार हो गया है, ऑफिस से जल्दी आना पड़ा, ... हाँ वे भी ठीक हैं, दुकान ठीक ही चल रही है लेकिन उनका मन नहीं लगता न! ठीक भी तो है, बैठे-बैठे बोर हो जाते हैं, ... हाँ-हाँ, कहते हैं खूँटा है यह तो ... लेकिन वे जिसमें खुश रहें उसी में मेरी खुशी है .... मैं सोचती हूँ कि कहीं उनकी टैलेंट बर्बाद न हो जाए। किस्मत की बात है, कोई कायदे की जगह ही न मिली ... कोशिश तो अपनी तरफ से हर आदमी करता ही है। .... मेरा क्या है, सिस्टम ऑपरेटर की तनख्वाह उतनी अच्छी तो नहीं लेकिन हमलोग बहुत खुश हैं, किसी को फिक्र करने की कतई जरूरत नहीं .... ठीक है, प्रणाम !...’’
रात को मन में क्या-क्या घुमड़ रहा था। कुछ कहना चाहता था। खुशबू की नाक बज रही थी। उस पर दवा का असर था। करवट बदलकर तब मैं भी सो गया। अगले दिन खुशबू ने ऑफिस जाने की जिद की।
मैं इससे खिन्न हो गया। तब उसने मनुहार करते कहा - ‘‘क्योंजी, मेरे बिना रहा नहीं जाता क्या? नौकरी छुड़वाने का इरादा है? अब तो ठीक है। जाना जरूरी है जी, समझते हो?’’ उसने मेरी नाक पकड़कर हिलाई और तैयार होने चली गई।
मैंने भी अपनी गद्दी संभाली और ग्राहकों को निपटाने लगा। खुशबू से पहले उसकी खुशबू आती थी मुझे विभोर करने। उसने मुझे चाय का कप पकड़ाया और स्टूल पर बैठ गई कुछ गंभीर मुद्रा में। मैं भी चुपचाप चाय पीता रहा।
‘‘सुनते हो, आज जरूर अपनी बायोडेटा दे आना। एक-एक दिन यूँ ही बीता जा रहा है। कुछ कर लेना चाहिए जी अब। इतना कुछ करने के बाद भी लगता नहीं कि पैरों के नीचे जमीन है। क्योंजी, कहाँ खोए हो ? कुछ सुन रहे हो ?’’
‘‘मुझे जाना तो है, लेकिन कहीं और ...’’
‘‘यह लो, किसने जादू चला दिया तुम पर, जरा सुनुँ तो ? कच्चा खा जाऊँगी उसे, समझ लेना।’’ हथेलियों को पंजा बनाकर उसने मेरी ओर बढ़ाया।
‘‘मुझे टेलीफोन ऑफिस जाना है।’’
‘‘क्यों ? बिल तो जमा हो गया न ? जरूर भाभी का कोई काम होगा, उन्हीं की सेवा करते रहो।’’ वह  झुँझलाई।
‘‘सोचता हूँ पी.सी.ओ. के लिए अप्लाई कर ही दूँ। एक और जरिया बन आएगा ... ’’
‘‘क्या कहते हो जी? देखो मुझे दोष न देना। अब भी कहती हूँ, चुनाव तुम्हारा है। मेरी तर फ से कोई दबाव न समझना ....’’ कहते-कहाँ वह सहसा रोने को हुईं ।
‘‘नहीं जी, मैं सोच-समझ कर कह रहा हूँ। इतनी मुश्किल है, इसमें जो है, पहले उसी को बचाया जाए खुशबू !’’
यह सुनना था कि वह मुझसे लिपटने को हो आई।
‘‘अरे-अरे, यह क्या कर रही हो, यह दुकान है, पब्लिक प्लेस है यार !’’
‘‘तो क्या, किसी के बाप की दुकान थोड़े ही है ! हमारी अपनी दुकान है। घर की दुकान है।’’ उसने एक बार चारों ओर निगाह दौड़ाई और जो चाहती थी वह कर गुजरी !
                                                                                  ---
शिवदयाल 
Sheodayal


f’kon;ky

कई चर्चित कहानियों एवं उपन्यास समेत दर्जनों वैचारिक निबंध प्रकाशित । बहुविधात्मक लेखन। लोकतंत्र, गत्यात्मकता, विपथगमन एवं विकास जैसे विषयों में विशेष  रुचि।
प्रारम्भिक शिक्षा के सृजनात्मक पक्ष से जुड़ाव। बच्चों की एवं शिक्षकों की पत्रिकाओं का सम्पादन। वंचित बच्चों के लिए पाठ्य-पुस्तक का निर्माण।
पंचायत राज, गवर्नेंस एवं विकास आदि विषयों पर पुस्तकों/प्रशिक्षण सामग्री का निर्माण एवं संपादन।
गत्यात्मकता एवं विकास पर केन्द्रित पत्रिका 'विकास सहयात्री' के संपादक ।
 

 प्रकाशित  पुस्तकें

छिनते पल छिन -  उपन्यास, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली।

मुन्ना बैंडवाले उस्ताद  -   कहानी संग्रह
, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी  दिल्ली

बिहार की विरासत (सं) -  बिहार पर महत्वपूर्ण वैचारिक पुस्तक, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।

राजनीतिशास्त्र भाग एक एवं दो -  नवीं एवं दसवीं कक्षा के लिए   पाठ्य-पुस्तक ,ज्ञान गंगा पब्लिकेशन 

संपर्क - 101, अनंत विकास अपार्टमेंट, वेद नगर, रूकनपुरा, बेली रोड,
पटना-800014

 ई-मेल
: sheodayal@rediffmail.com
 दूसरा उपन्यास प्रकाशनाधीन।
 प्रिय ललितजी ,
 गद्यकोश के लिए अपनी एक कहानी - चन्दन खुशबू की दुकान - भेज रहा हूँ। आशा है आपको रुचिकर लगेगी और जल्द ही इसे प्रकाशित  करना चाहेंगे।  
मेरी कहानी :चन्दन खुशबू की दुकान के गद्यकोष में प्रकाशन पर मुझे या मेरे प्रकाशक को कोई आपत्ति नहीं होगी।यह मेरी मौलिक रचना है जो 'मुन्ना बैंडवाले उस्ताद'(भारतीय ज्ञानपीठ) में संगृहीत है।
सानन्द  होंगे।
आपका 


  नव-चैतन्य के महावट - रवींद्रनाथ                                 - शिवदयाल  ब चपन में ही जिन विभूतियों की छवि ने मन के अंदर अपना स्थाई निवा...